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वामपंथ का अवसान-जमीनी हकीकत से दूर बौद्धिक बहस में ही सिमटा

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वामपंथ का अवसान-जमीनी हकीकत से दूर बौद्धिक बहस में ही सिमटा

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देश के पहले चुनाव में श्री अमृत डांगे के नेतृत्व में वामपंथी दलों ने लोकसभा की १७ सीटें जीत कर ३.२९ प्रतिशत मत हासिल किया था। वामपंथी दल सर्वाधिक १९८० में ५० और २००४ में ५३ सीटें जीती लेकिन २०१४ के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने वामपंथ का सफाया कर दिया और माकपा को केवल दो सीटें मिली जबकि उसके सहयोगी भाकपा एवं अन्य दलों का खाता भी नही खुला। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तो वामपंथ २००२ के विधानसभा चुनाव के बाद हाशिये से ही बाहर हो गया है। अन्तिम बार २००२ में माकपा से नजीबाबाद से रामस्वरूप और मेजा से रामकृपाल जीते थे। भाकपा का एक प्रत्याशी १९९६ के चुनाव में जीता था, उसके बाद खाता ही नही खुला। उत्तर प्रदेश की राजनीति में वामपंथ के सफाये का बहुत बड़ा कारण समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी रही। जैसे-जैसे इन दलों का बर्चस्व बढ़ा वामपंथ उत्तर प्रदेश की राजनीति से सिमटता चला गया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सत्ता समीकरण के लिए भाकपा के कई प्रमुख नेताओं मित्रसेन यादव तथा अफजाल अंसारी को अपने साथ मिलाकर पार्टी की रीढ़ तोड़ दी तो बसपा ने दलित वोट बैंक को सत्ता का स्वाद चखाकर वामपंथ की जमीनी हकीकत को ही समाप्त कर दिया। हालात यह हुआ कि बढ़ती उम्र और बदलते राजनीतिक परिवेश के कारण भाकपा के पुरोधा उदल 1996 के चुनाव में भाजपा के युवा नेता अजय राय से कोलसला से चुनाव हार गये। गाजीपुर से सरयू पाण्डेय तथा आजमगढ़ से झारखंडे राय के उत्तराधिकारी उनकी विरासत बचाने में असफल रहे। सरयू पाण्डेय तथा झारखंडे राय की राजनीति का आधार उस समय दलित बस्तियां होती थी। दोनों ही नेता दलित बस्तियों में ही डेरा डालते और उन्ही के साथ भोजन कर उन्हें अपने अधिकार के लिए प्रेरित करते। दोनों ही सवर्ण परिवार से होने के कारण दलित बस्तियों में प्रिय बन गये थे। उस समय की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार सवर्णो का दलित बस्तियों में अपनापन करना एक क्रान्तिकारी कदम माना जाता था। नयी पीढ़ी अब उस स्थिति का आंकलन नही कर सकती है। दलित समुदाय का मनोबल बढ़ाने का बसपा जो भी दावा करे परन्तु तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में सवर्ण वामपंथी दलों के योगदान को भुलाया नी जा सकता है। दलित बस्ती पर जब सरयू पाण्डेय का भाषण होता और वह गांव के दबंगों के खिलाफ ललकारते और कहते कि "जब तबला बाजे धीन-धीन तक एक-एक पर तीन-तीन"। सरयू पाण्डेय का यह नारा दलित समाज के लोगों में क्रान्ति और शोषण के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का आवेश भर देता।