दिनेश दुबे- धर्म और अध्यात्म को जानने वालों की मानें तो समाज में जब तक अंश मात्र भी सच्चाई और ईमानदारी रहेगी तब तक हम सब सुरक्षित रहेंगे ! यह बात अलग है कि 'झूंठ-फरेब' और बेईमानी के प्रदूषण ने आम जन मानस को ठीक उसी तरह से खोखला कर रखा है जिस तरह से पेंड-पौधों और वनों की अंधाधुंध कटान, नदियों और भूगर्भ के जल दोहन, पहाड़ों तथा खादानों से खनिज के उत्खनन व रासायनिक पदार्थों के अंधाधुंध प्रयोग से प्रकृति का वातावरण को दूषित कर रखा है जिसमें सांस लेना भी मुश्किल हो चुका है !
वातावरण के प्रदूषण का परिणाम तो हम सब अपनी आंखों से देख ही रहें है ! किन्तु चिंता इस बात की है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी हम लोग सुधरने की बजाय बिगड़ते ही जा रहे हैं । शायद यही वज़ह है कि हमारे समाज की स्थितियां इतनी खराब हो चुकीं हैं कि अब सुधार होने की शुरुआत भी होते नहीं दिख रही है ! जो लोग किसी तरह से कुछ सुधार करना भी चाह रहे हैं उन्हें समाज की मुख्य धारा से अलग किया जाने लगा है । इससे भी बड़ी बात और चिंता का विषय यह है कि समाज के नीति-नियंता व्यवस्था में सुधार लाने की दिशा में प्रयास करने के बजाय समाज को भृमित करने में जुटे हैं ! ऐसे में अब ज़रूरी हो गया है कि जनता को ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम अपने ज़मीर तो जिंदा रखते हुए सच को सच और झूंठ को झूंठ कहने की हिम्मत जुटानी ही चाहिए ! नहीं तो हम सबको पश्यचाताप ही करना पड़ेगा । मेरा मानना है कि जिस आदमी का ज़मीर मर जाता है उस आदमी की गिनती जिंदा लोगों में नहीं हो सकती !
पिछले डेढ़ साल से हमारा देश ही नहीं बल्कि विश्व भर के सभी देश कोविड-19 की ऐसी महामारी से जूझ रहे हैं जिसके उपचार और रोकथाम के विषय में अभी तक कोई पुख़्ता इंतजाम नहीं हो सके है ! धर्मांधता और शिक्षा की कमीं के साथ ही जातीयता की जड़ों में जकड़े होने की वज़ह से कोरोना महामारी का कहर जितना भारत में बरपा है उतना विश्व के किसी भी देश में नहीं ! क्योंकि हमारे देश की सरकार ने कोरोना से लड़ने के बजाय चुनाव लड़ने और सत्ता में बने रहने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने में ज्यादा रुचि दिखाई । यही नहीं सत्तारूढ़ दल ने उस भयावह दौर में भी देश के संघीय ढांचे पर अपना प्रभुत्व कायम करने का प्रयास जारी रखा जब देश के असंख्य लोग सड़कों पर भूख-प्यास से तड़पकर जिंदगी बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे । एकाएक ठप्प हुए देश भर के कल-कारखानों और धंधों ने दशकों की मेहनत महीनों में बर्बाद कर दी !
कोरोना महामारी और सरकार के कुप्रबंधन से पूरे देश की अर्थ व्यवस्था चौपट हो गई है जिसके चलते करोड़ों लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं । बावजूद इसके सरकार 'मुफ्त राशन' और मुफ्त टीका के नाम पर अपनी पीठ थपथपाने में जुटी है । सरकार की किसी भी नीति का विरोध करना देशविरोधी गतिविधि में शामिल किया जा रहा है । यही वज़ह है कि हमारा देश इस समय ऐसे नाजुक दौर में पहुंच चुका है जिसकी कल्पना करने मात्र से रोगंटे खड़े हो जाते हैं । इससे एक बात तो साफ़ हो ही गई है कि हमारा देश अपरिपक्व लोकतांत्रिक व्यवस्था की सजा भी भुगत रहा है ! हमारे देश के अधिकांश लोगों को अभी तक लोकतांत्रिक व्यवस्था संचालित करने वाली संविधान की नीतियों के बजाय जाति-धर्म की भावनाओं में बहकर स्वार्थी नेताओं के जाल में फंसने की आदत से छुटकारा नहीं मिला है । इसलिए कहा जा सकता है कि हमारे देश में संविधान नाम की एक किताब तो है लेकिन उसमें लिखी हुई बातों का पालन सिर्फ और सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए होता है जो संगठित ही नहीं बल्कि अवसरवादी भी हैं !
इस लिहाज से देखा जाए तो हमारे देश ने लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने के बाद जो प्रगति की है वह वास्तविक रूप से काफी तो है किन्तु अभी भी ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके उत्तर हम सबको बता रहे हैं कि अगर समय रहते इनका हल निकाल लिया जाता तो हमारा देश अब तक बहुत प्रगति कर चुका होता ? खेद का विषय और हास्यास्पद तथ्य यह है कि सतारूढ़ दल ने भृष्टाचार के साथ ही जाति-धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह से देश की जनता को भावनात्मक रूप से गुमराह करते हुए सत्ता में बने रहने का रास्ता बना लिया है वह ऐसे गर्त की ओर जा रहा है जो लोगों को अंधभक्ति के कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है । सत्तारूढ़ दल एक ओर तो पिछली सरकार को नकारा बताने से नहीं थकती और दूसरी ओर बने बनाये संस्थानों को बेंचने और गिरवीं करने में जुटी हुई है ! इन सब मुद्दों से अलग हटकर देखा जाए तो अभी भी देश में ऐसे तमाम सारे मुद्दे हैं जिनपर कभी किसी भी सरकार ने गम्भीरता से चिंतन ही नहीं किया । जिसकी वजह से प्रतिवर्ष देश की अथाह सम्पत्ति का नुकसान हो रहा है ।
हर साल देश के कई हिस्सों में लोग बाढ़ से विस्थापित हो रहे हैं । उनकी कमाई गई संपत्तियों को नुक़सान पहुँच रहा है । कहीं कहीं तो लोगों की जीवन भर की कमाई ख़त्म हो जाती है । इस तरह की तबाही की चपेट में किसी इलाका विशेष के लोग ही नहीं आ रहे हैं । इन गम्भीर मुद्दों के बारे में प्राथमिकता से सोचने की किसी को कभी फुर्सत नहीं मिली है । ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आखिर कब तक हमारे नेतागण जाति व धर्म के नाम पर राजनीति करते हुए असल मुद्दों से मुंह मोड़ते रहेंगे। पूरा देश जानता है कि इस राजनीति से सिर्फ दस लोगों का भला होता है । बाक़ी जनता बेवकूफ बन रही है । इस सबके बीच चिंता का एक विषय यह भी है कि आज भी हमारे देश में मूर्ति, स्मारक, जयंती और पुण्यतिथि के नाम पर लोगों का गिरोह बन रहा है । जातीय गिरोह बनाने वाले लोग मानव कल्याण के बड़े मुद्दों को डुबोते जा रहे है । जबकि देश में हर जाति के लाखों-करोड़ों लोग परेशान है । इसलिए अब जरूरी हो गया है कि लोगों को अपने जंमीर को जिंदा रखते हुए सिस्टम में बदलाव की पहल करनी चाहिए । क्योंकि जब तक सिस्टम का पुनर्निर्माण नहीं होगा तब तक इन सब मुद्दों से किसी का भला नहीं होगा ।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
वातावरण के प्रदूषण का परिणाम तो हम सब अपनी आंखों से देख ही रहें है ! किन्तु चिंता इस बात की है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी हम लोग सुधरने की बजाय बिगड़ते ही जा रहे हैं । शायद यही वज़ह है कि हमारे समाज की स्थितियां इतनी खराब हो चुकीं हैं कि अब सुधार होने की शुरुआत भी होते नहीं दिख रही है ! जो लोग किसी तरह से कुछ सुधार करना भी चाह रहे हैं उन्हें समाज की मुख्य धारा से अलग किया जाने लगा है । इससे भी बड़ी बात और चिंता का विषय यह है कि समाज के नीति-नियंता व्यवस्था में सुधार लाने की दिशा में प्रयास करने के बजाय समाज को भृमित करने में जुटे हैं ! ऐसे में अब ज़रूरी हो गया है कि जनता को ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम अपने ज़मीर तो जिंदा रखते हुए सच को सच और झूंठ को झूंठ कहने की हिम्मत जुटानी ही चाहिए ! नहीं तो हम सबको पश्यचाताप ही करना पड़ेगा । मेरा मानना है कि जिस आदमी का ज़मीर मर जाता है उस आदमी की गिनती जिंदा लोगों में नहीं हो सकती !
पिछले डेढ़ साल से हमारा देश ही नहीं बल्कि विश्व भर के सभी देश कोविड-19 की ऐसी महामारी से जूझ रहे हैं जिसके उपचार और रोकथाम के विषय में अभी तक कोई पुख़्ता इंतजाम नहीं हो सके है ! धर्मांधता और शिक्षा की कमीं के साथ ही जातीयता की जड़ों में जकड़े होने की वज़ह से कोरोना महामारी का कहर जितना भारत में बरपा है उतना विश्व के किसी भी देश में नहीं ! क्योंकि हमारे देश की सरकार ने कोरोना से लड़ने के बजाय चुनाव लड़ने और सत्ता में बने रहने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने में ज्यादा रुचि दिखाई । यही नहीं सत्तारूढ़ दल ने उस भयावह दौर में भी देश के संघीय ढांचे पर अपना प्रभुत्व कायम करने का प्रयास जारी रखा जब देश के असंख्य लोग सड़कों पर भूख-प्यास से तड़पकर जिंदगी बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे । एकाएक ठप्प हुए देश भर के कल-कारखानों और धंधों ने दशकों की मेहनत महीनों में बर्बाद कर दी !
कोरोना महामारी और सरकार के कुप्रबंधन से पूरे देश की अर्थ व्यवस्था चौपट हो गई है जिसके चलते करोड़ों लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं । बावजूद इसके सरकार 'मुफ्त राशन' और मुफ्त टीका के नाम पर अपनी पीठ थपथपाने में जुटी है । सरकार की किसी भी नीति का विरोध करना देशविरोधी गतिविधि में शामिल किया जा रहा है । यही वज़ह है कि हमारा देश इस समय ऐसे नाजुक दौर में पहुंच चुका है जिसकी कल्पना करने मात्र से रोगंटे खड़े हो जाते हैं । इससे एक बात तो साफ़ हो ही गई है कि हमारा देश अपरिपक्व लोकतांत्रिक व्यवस्था की सजा भी भुगत रहा है ! हमारे देश के अधिकांश लोगों को अभी तक लोकतांत्रिक व्यवस्था संचालित करने वाली संविधान की नीतियों के बजाय जाति-धर्म की भावनाओं में बहकर स्वार्थी नेताओं के जाल में फंसने की आदत से छुटकारा नहीं मिला है । इसलिए कहा जा सकता है कि हमारे देश में संविधान नाम की एक किताब तो है लेकिन उसमें लिखी हुई बातों का पालन सिर्फ और सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए होता है जो संगठित ही नहीं बल्कि अवसरवादी भी हैं !
इस लिहाज से देखा जाए तो हमारे देश ने लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने के बाद जो प्रगति की है वह वास्तविक रूप से काफी तो है किन्तु अभी भी ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके उत्तर हम सबको बता रहे हैं कि अगर समय रहते इनका हल निकाल लिया जाता तो हमारा देश अब तक बहुत प्रगति कर चुका होता ? खेद का विषय और हास्यास्पद तथ्य यह है कि सतारूढ़ दल ने भृष्टाचार के साथ ही जाति-धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह से देश की जनता को भावनात्मक रूप से गुमराह करते हुए सत्ता में बने रहने का रास्ता बना लिया है वह ऐसे गर्त की ओर जा रहा है जो लोगों को अंधभक्ति के कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है । सत्तारूढ़ दल एक ओर तो पिछली सरकार को नकारा बताने से नहीं थकती और दूसरी ओर बने बनाये संस्थानों को बेंचने और गिरवीं करने में जुटी हुई है ! इन सब मुद्दों से अलग हटकर देखा जाए तो अभी भी देश में ऐसे तमाम सारे मुद्दे हैं जिनपर कभी किसी भी सरकार ने गम्भीरता से चिंतन ही नहीं किया । जिसकी वजह से प्रतिवर्ष देश की अथाह सम्पत्ति का नुकसान हो रहा है ।
हर साल देश के कई हिस्सों में लोग बाढ़ से विस्थापित हो रहे हैं । उनकी कमाई गई संपत्तियों को नुक़सान पहुँच रहा है । कहीं कहीं तो लोगों की जीवन भर की कमाई ख़त्म हो जाती है । इस तरह की तबाही की चपेट में किसी इलाका विशेष के लोग ही नहीं आ रहे हैं । इन गम्भीर मुद्दों के बारे में प्राथमिकता से सोचने की किसी को कभी फुर्सत नहीं मिली है । ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आखिर कब तक हमारे नेतागण जाति व धर्म के नाम पर राजनीति करते हुए असल मुद्दों से मुंह मोड़ते रहेंगे। पूरा देश जानता है कि इस राजनीति से सिर्फ दस लोगों का भला होता है । बाक़ी जनता बेवकूफ बन रही है । इस सबके बीच चिंता का एक विषय यह भी है कि आज भी हमारे देश में मूर्ति, स्मारक, जयंती और पुण्यतिथि के नाम पर लोगों का गिरोह बन रहा है । जातीय गिरोह बनाने वाले लोग मानव कल्याण के बड़े मुद्दों को डुबोते जा रहे है । जबकि देश में हर जाति के लाखों-करोड़ों लोग परेशान है । इसलिए अब जरूरी हो गया है कि लोगों को अपने जंमीर को जिंदा रखते हुए सिस्टम में बदलाव की पहल करनी चाहिए । क्योंकि जब तक सिस्टम का पुनर्निर्माण नहीं होगा तब तक इन सब मुद्दों से किसी का भला नहीं होगा ।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
23rd September, 2021