राहुल को उलटी चाल चला रहे सलाहकार
विजय शंकर पंकज लखनऊ, यूरिड मीडिया। लोकसभा में नरेन्द्र मोदी सरकार को घेरने के लिए अविश्वास प्रस्ताव लाने का कांग्रेसी दांव उलटा पड़ा। प्रस्ताव लाने की शुरूआत से ही साफ हो गया कि कांग्रेसी नेतृत्व इसके प्रति गंभीर नही है। इस पर बिना समुचित तैयारी के राहुल गांधी का हल्का भाषण से कांग्रेस की किरकिरी हुई तो बचकानी हरकतों ने देश भर में हंसी का पात्र बना दिया। ऐसी नाकामयाबियों पर गंभीरता से चिन्तन करने की बजाय चापलूसी की टीम उस पर पर्दा डालने की हर जुगत में जुटी हुई है। अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस विपक्षी एकता का संदेश भी नही दे पायी। महागठबंधन की तैयारी में जुटी कांग्रेस को यह बड़ा झटका है।
कांग्रेस में पिछले काफी दिनों से जिस प्रकार की राजनीतिक योजनाएं बनायी जा रही है, उससे यह एहसास होने लगा है कि एक वर्ग राहुल को सफल नही होने देना चाहता है। कांग्रेस में ऐसी स्थिति है तो यह पार्टी और राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए भी खतरनाक है। कहा तो यह भी जाता है कि राहुल किसी की सलाह ही नही मानते जिसके कारण कोई भी व्यक्ति उनसे सही बात कहने की हिम्मत ही नही जुटा पाता। राहुल की समस्या है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद उन्हें विरासत में मिला है परन्तु किसी पद के मिलने से उसकी योग्यता नही आ जाती है। राजनीतिक परिवार में पैदा होने के बाद भी राहुल को राजनीति और भारतीय समाज की जानकारी नही है। राहुल का यह भी दुर्भाग्य रहा है कि उन्हें अपनी दादी इन्दिरागांधी और पिता राजीव गांधी से कुछ सीखने का पर्याप्त अवसर नही मिला। वैसे राजीव गांधी को भी प्रधानमंत्री का पद विरासत और इन्दिरागांधी की हत्या से उभरी सहानुभूति से मिला। यही कारण रहा कि पर्याप्त बहुमत के बाद भी राजीव गांधी सरकार पर सही पकड़ नही रख सके। बोफोर्स सौदे के आरोपों का राजीव समुचित जवाब नही दे पाये और अपने ही सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह की साजिश का शिकार हो गये। 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष में रहते राजीव गांधी को भारतीय राजनीति का पर्याप्त अनुभव हुआ परन्तु नियति ने उन्हें समय से पहले ही छीन लिया। तब राहुल बहुत छोटे थे। गांधी परिवार में सात वर्ष में ही दो शहादत ने पूरे परिवार को झकझोर दिया। भय और साजिश के बीच पले-बढ़े राहुल को राजनीति और भारतीय समाज को समझने का अवसर ही नही मिला। राहुल के इर्द गिर्द जो कांग्रेसी चौकड़ी काम कर रही है, वह भी अपने स्वार्थो के निपटाने में ही लगी हुई है। सलाहकार को हमेशा जरा कड़ा और कड़वा रहना चाहिए। राहुल को चापलूसियों के बीच जीने और आत्मप्रशंसा सुनने की लत लग गयी है।
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के समय राहुल ने जो कुछ कहा, वह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शाता है। अविश्वास प्रस्ताव पर राहुल जैसा बोले, उससे साफ था कि उसके लिए पर्याप्त तैयारी नही की गयी थी। राहुल ने मोदी की ही शैली में बिना देखे बोलने की बेबाक शैली अपनायी परन्तु नकल के लिए अकल नही लगा सके। भाषण के राहुल अपने को ही पप्पू साबित कर गये। राहुल ने कांग्रेस बताने के चक्कर में अपने को सबको साथ लेकर चलने वाला शान्ति प्रिय जाहिर भी करने का प्रयास किया परन्तु भाषण के दौरान उनकी बाडी लंग्वेज पूरी तरह से आक्रामक एवं आक्रोश की थी। ऐसा लगा कि राहुल लोकसभा में नही किसी चौराहे की सभा में बोल रहे थे। शुरूआत में राहुल ने कुछ शब्द अच्छे कहे परन्तु भाषा और संबंधो की मर्यादा को संभाल नही पाये। राफेल डील में फ्रांस के राष्ट्रपति का जिक्र कर राहुल ने अन्तर्राष्ट्रीय विरादरी में भी अपनी फजीहत करा ली। इसका परिणाम होगा कि विश्व का कोई नेता राहुल को गंभीरता से नही लेगा। यह हालात तब है जब राहुल देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी के अध्यक्ष है। कांग्रेस अध्यक्ष रहते सोनिया ने अपने आचरण और भाषा से संयम बरता। इसके विपरीत 44 वर्ष के राहुल अभी तक 15 वर्ष के बच्चे की तरह बचकानी करने से बाज नही आ रहे है।
अविश्वास प्रस्ताव लाने से पहले कांग्रेस को इसकी पूरी तैयारी करनी चाहिए थी। लोकसभा कार्यालय में प्रस्ताव देने में ही कांग्रेस देर कर गयी और टीडीपी ने बाजी मार ली। इसके बाद कांग्रेस की तरफ से राहुल ने मोर्चा संभाला परन्तु अपनी हरकतों से गच्चा खा गये। अविश्वास प्रस्ताव में सरकार को घेरने के लिए राहुल को वारिष्टों से चर्चा कर तैयारी करनी चाहिए थी। अपनी बात को रखने के लिए सत्तापक्ष भाजपा के कई नेताओ ने समुचित तैयारी की थी। कांग्रेस में सरकार को घेरने के लिए कई अच्छे वक्ता थे परन्तु उनका लाभ नही उठाया गया। इस मामले में भी टीडीपी ने कांग्रेस से बाजी मार ली। टीडीपी की तरफ से प्रस्ताव किसी ने दिया और उस पर अच्छे वक्ता जयदेव गल्ला बोले। फिलहाल राहुल को लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षियों से गठबंधन के साथ ही अपनी कार्यशैली में भी बदलाव करना पड़ेगा। अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस विपक्षी एकता का संदेश दे सकती थी परन्तु उसमें विफल साबित हुई। साफ था कि कांग्रेसी नेताओ ने सहयोगी विपक्षी दलों से सार्थक वार्ता नही की थी और नही उन्हे साथ लेकर चलने का ही प्रयास किया।
21st July, 2018