
राजेन्द्र द्विवेदी, यूरीड मीडिया- देश के सबसे बड़े दुश्मन चीन को हम निरंतर आर्थिक लाभ पंहुचा रहे हैं। चीन से आयात लगातार बढ़ता जा रहा है। निर्यात में लगातार गिरावट आ रही है। यह बहुत गंभीर और चिन्ता का विषय है। देश के लिए सबसे बड़े खतरनाक, धोखेबाज चीन को आयात के माध्यम से लगातार आर्थिक लाभ पहुंचाने का कार्य कांग्रेस एवं भाजपा दोनों सरकारों में बड़े पैमाने में हुआ है। इसके लिए मोदी और राहुल दोनों देश की जनता को बताना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ और इसे रोकने के लिए राहुल और मोदी दोनों का रोडमैप क्या है ?
अगर हम केवल भावनाओं की बजाय तथ्यों और आँकड़ों की बात करें तो तस्वीर और भी चिंताजनक हो जाती है:
2005 तक भारत और चीन के बीच व्यापारिक संतुलन काफी हद तक भारत के पक्ष में था। इस वर्ष भारत चीन के साथ 1 लाख करोड़ रुपये लाभ में था।
लेकिन 2007 के बाद से भारत का व्यापार घाटा चीन के साथ तेजी से बढ़ने लगा।
2007 में चीन से भारत का आयात 20 लाख करोड़ के करीब था, जो 2024 में बढ़कर 106 लाख करोड़ हो गया है—यानि पाँच गुना वृद्धि।
वहीं, भारत का चीन को निर्यात 12.1 लाख करोड़ से बढ़कर सिर्फ 12.45 लाख करोड़ हुआ है, जो कि नाममात्र की वृद्धि है।
इस कारण भारत का व्यापार घाटा 2006 में जहाँ 3 लाख करोड़ था, वह 2014 में बढ़कर 31 लाख करोड़ और 2024 में 93.66 लाख करोड़ हो चुका है।
इसका सीधा अर्थ यह है कि हम हर साल चीन को अपने खजाने से अरबों रुपये देकर उसे हमारी सीमाओं पर आक्रामक बनने की शक्ति दे रहे हैं।
चीन कोई नया प्रतिद्वंद्वी नहीं है। 1962 में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दे रहे थे, उसी समय चीन ने पीठ में छुरा घोंपकर भारत की हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया। इसके बाद से हर दशक में चीन ने किसी न किसी रूप में भारत की संप्रभुता को चुनौती दी है—कभी सीमाओं पर तनाव के माध्यम से, तो कभी पाकिस्तान के साथ गहरे सैन्य और आर्थिक संबंध बनाकर। चीन केवल एक सीमित भू-राजनीतिक दुश्मन नहीं है। वह एक ऐसा देश है जिसने हर मोर्चे पर भारत के खिलाफ अपने इरादे स्पष्ट किए हैं। चाहे कारगिल युद्ध हो, पुलवामा हमला हो या गलवान घाटी में हमारे 20 जवानों की शहादत—हर बार चीन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत के विरोध में खड़ा रहा है। इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में चीन ने अपने आधिकारिक नक्शों में भारत के हिस्सों को अपने क्षेत्र में दिखाकर भारत की संप्रभुता को बार-बार ललकारा है। फिर भी विडंबना देखिए कि यही चीन भारत का सबसे बड़ा आयात स्रोत बना हुआ है। हम हर दिन चीन से अरबों रुपये का माल मंगवाकर उसे आर्थिक रूप से और अधिक सशक्त बना रहे हैं, और वही धन चीन अपने सैन्य विस्तार और भारत विरोधी गतिविधियों में खर्च करता है। यह स्थिति किसी एक सरकार की देन नहीं है, बल्कि यह सभी राजनीतिक दलों की नीति और नीयत दोनों की सामूहिक विफलता है।
यह गंभीर स्थिति केवल भाजपा या कांग्रेस किसी एक पार्टी की नीतियों का परिणाम नहीं है। कांग्रेस के शासनकाल में व्यापार घाटा शुरू हुआ और भाजपा के शासनकाल में वह नई ऊँचाइयों तक पहुँचा। दोनों दलों ने अलग-अलग मुद्दों पर देश को बांटने, भावनाएं भड़काने और जनसमर्थन पाने के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए, लेकिन कभी भी चीन से आर्थिक निर्भरता खत्म करने का समुचित प्रयास नहीं किया गया। राहुल गांधी वर्षों से जातीय जनगणना का मुद्दा जोर-शोर से उठाते रहे हैं, जबकि भाजपा हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करती रही है। परंतु जब बात चीन से आयात बंद करने, स्वदेशी को बढ़ावा देने या व्यापार संतुलन को ठीक करने की आती है, तो सभी दल मौन साध लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों?
यदि जातीय गणना, मंदिर निर्माण या जनसंख्या नियंत्रण जैसे संवेदनशील विषयों पर राष्ट्रीय मुहिम चलाई जा सकती है, तो चीन को आर्थिक लाभ पहुँचाने के खिलाफ एक संयुक्त राष्ट्रव्यापी अभियान क्यों नहीं चलाया जा सकता? क्या यह मुद्दा भारत की एकता और संप्रभुता से कम महत्वपूर्ण है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी अपनाने का आह्वान किया था। उन्होंने देशवासियों से स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता देने की अपील की थी। लेकिन अगर गाँवों तक में चीनी उत्पाद धड़ल्ले से बिक रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ यही है कि सरकारी नीतियों और ज़मीनी हकीकत में भारी अंतर है।
क्या केवल आम नागरिकों से स्वदेशी अपनाने की अपेक्षा करना पर्याप्त है, जब खुद सरकारें चीन से भारी मात्रा में इलेक्ट्रॉनिक्स, मशीनरी, फर्नीचर, खिलौने, और दवाओं के कच्चे माल का आयात कर रही हैं? क्या यही राष्ट्रवाद है? भारत का वास्तविक राष्ट्रवाद अब इस बात से तय होगा कि क्या हम अपने सबसे बड़े रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी चीन से आर्थिक निर्भरता को खत्म कर पाते हैं या नहीं। यह सिर्फ व्यापार या आयात-निर्यात का मुद्दा नहीं है, यह राष्ट्रीय सुरक्षा और आत्मसम्मान का प्रश्न है। आर्थिक निर्भरता एक ऐसी ज़ंजीर है जो किसी भी देश को कमजोर बना देती है। यदि हम अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी चीन पर निर्भर रहेंगे, तो किसी भी भविष्य के संघर्ष में हम पहले ही कमजोर स्थिति में होंगे।
अब वक्त आ गया है कि देश की जनता भी इस मुद्दे पर अपनी राजनीतिक समझ और सजगता का परिचय दे। उन्हें अपने नेताओं से केवल मंदिर, जाति, धर्म और भाषण नहीं, बल्कि आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के ठोस जवाब मांगने होंगे। कांग्रेस हो या भाजपा, राहुल गांधी हों या नरेंद्र मोदी—सभी को जवाब देना होगा कि क्यों उन्होंने चीन के खिलाफ आर्थिक मोर्चा खोलने की कोई गंभीर रणनीति नहीं अपनाई? और आगे उनका क्या रोडमैप है? जब तक देश के नेता और नागरिक दोनों मिलकर चीनी आयात के खिलाफ निर्णायक कदम नहीं उठाते, तब तक स्वदेशी, आत्मनिर्भरता और राष्ट्रवाद जैसे शब्द सिर्फ भाषणों की शोभा बने रहेंगे।
10th June, 2025