यूरीड मीडिया, दिनेश दुबे- लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में आम जन मानस की समस्याओं से दूर होकर जब कोई सरकार 'राष्ट्रवाद' के नाम पर जनता को ग़ुमराह करने लगती है तो उस देश की लोकतांत्रिक व संवैधानिक व्यवस्था डगमगाने लगती है ! ऐसे में उस देश का न सिर्फ विकास रुक जाता है बल्कि उसका भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है ! क्योंकि शासक वर्ग और उससे जुड़े लोग निरंकुश होकर जनता का शोषण करने लगते हैं ! जिसके चलते देश का निम्न वर्ग और अधिक गरीबी में गुज़र-बसर करने के लिए मजबूर हो जाता है जबकि मध्यम वर्ग गरीबी की ओर अग्रसर हो जाता है ! तमाम विद्वानों का मत है कि राष्ट्रवाद का नशा जातिवाद व सम्प्रदायवाद से भी ज़्यादा घातक होता है ! क्योंकि जिन लोगों पर राष्ट्रवाद का नशा चढ़ता है वो लोग खुद के नियंत्रण से बाहर होकर तत्कालिक रूप से भला-बुरा सोंचने में असमर्थ हो जाते है ! ऐसे लोगों पर शासक वर्ग का नियंत्रण स्थापित हो जाता है जिसका शासक वर्ग अपनी सुविधानुसार उपयोग करते हैं !
'नेशनलिज्म इन इंडिया' नामक निबन्ध में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने लिखा है कि राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता प्राप्त करने का यांत्रिक प्रयास करना है ! गुरुदेव टैगोर के मुताबिक राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः विज्ञापन तथा अन्य माध्यमों का लाभ उठाकर राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त हुई हैं ! शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने राष्ट्रों में पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है ! गुरुदेव के अनुसार यह सीधे सीधे मानव जीवन के साथ खिलवाड है ! क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसी परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है। फलस्वरूप राष्ट्र समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर हाबी हो जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है। गुरू रवीन्द्र नाथ ने इसी आधार पर राष्ट्रवाद की आलोचना की थी। उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के स्वार्थ का ऐसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता तथा आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं होता है । दुर्बल एवं असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल होता है ! इससे साम्राज्यवाद उपजता है जो अंततः मानवता का संहारक बनता है। राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि होने पर कोई नियंत्रण सम्भव नहीं होता और इसके विस्तार की कोई सीमा भी नहीं होती !
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के मुताबिक उसकी इस अनियांत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित होते हैं। राष्ट्रों का पारस्परिक संघर्ष जब विश्वव्यापी युद्ध का रूप धारण कर लेता है तब उसकी संहारकता के सामने सब कुछ नष्ट हो जाता है। शायद यही वज़ह है कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद को निर्माण का मार्ग न मानकर उसे विनाश का मार्ग माना है ! यह बात अलग है कि हमारे अपने देश में पिछले एक दशक से राष्ट्रवाद के नाम पर जो कुछ हो रहा है उस पर पूरा देश चुप्पी साधे हुए हुए है। जबकि राष्ट्रवाद की धारणा किस तरह शक्ति के आधार पर विभिन्न मानवी समुदायों में वैमनस्य तथा स्वार्थ उत्पन्न करती है इस बात को उजागर करता रवीन्द्रनाथ टैगोर का मौलिक चिंतन समूचे विश्व के लिए आज तक अमूल्य योगदान बना हुआ है। लेकिन जिस देश व समाज में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने जन्म लिया और मौजूदा दौर में जहां उनकी पूजा की जाती है। उसी देश व समाज के लोगों ने गुरदेव के मौलिक चिंतन को नकार रखा है !यही नहीं उसी देश व समाज के लोग स्वार्थ और सत्ता के लिए गुरुदेव के मौलिक चिंतन की भाषा व परिभाषा भी अपने हिसाब से तय करने में जुटे हुए हैं। जो हमारे समाज व देश के लिए न सिर्फ चिंतनीय है बल्कि बेहद घातक भी है !
जिस छद्म राष्ट्रवाद की हम यहां पर चर्चा कर रहे हैं और जिसे चिंतकों का एक बड़ा वर्ग गलत मानते हुए उसे दक्षिणपंथी व दुराग्रही सोच की परिणति बताकर उसका विरोध कर रहा है उसमें उनकी गलती कम और उस वर्ग की गलती ज्यादा है जो 'राष्ट्रवाद' को किसी वंदना या गोहत्या के विरोध तक ही सीमित किये हुए हैं। ऐसे लोग जो अपने प्रधानमंत्री की नीतियों का विरोध करने वालों या फिर भारत माता की जय का नारा लगाने से इन्कार करने वालों पर राष्ट्रविरोधी होने का आरोप मढ़कर उन्हें ‘पाकिस्तान’ भेजने की सलाह दे रहे हैं वो राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीय समाज में जहर घोल रहे हैं। क्योंकि राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा और मूल भारतीय राष्ट्रवाद में काफी अंतर है। कौन नहीं जानता कि यूरोपीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति चेतना के क्रमिक आध्यात्मिक विकास से न होकर चर्च के तानाशाही रवैये के खिलाफ औपनिवेशिक शक्तियों को उखाड़ फेंकने की प्रक्रिया से शुरू हुई थी। राष्ट्रवाद की यूरोपीय परिभाषा के अनुसार राष्ट्र ऐसे लोगों के समूह से बनता है जो समान भाषा, समान पंथ या समान इतिहास वाले हों ! यही नहीं उनके गृहक्षेत्र एक हों और अपने शासक के लिए समर्पण के साथ ही एकता का भाव भी हो ! लेकिन इस आधार पर तो भारत कभी भी खरा नहीं उतर सकता ! क्योंकि भारत विविधताओं से भरा हुआ राष्ट्र है और जिसकी वज़ह से ही मौजूदा भारत की पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान भी है ! चूंकि गांधी जी की परिकल्पना का भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक उत्थान की सीढ़ी का पर्याय मात्र है ! जबकि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का मत गांधी जी से भिन्न था ! मौजूदा दौर में चिंता का मुख्य विषय भी यही है कि वसुधैव कुटुंबकम और सर्वधर्म समभाव को आत्मसात करने वाले भारत में जिस छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर आम लोगों को ग़ुमराह किया जा रहा वह किसी भी दृष्टि से देश के लिए हितकर नहीं हो सकता ! हां इतना जरूर है कि मौजूदा राष्ट्रवाद से सत्तारूढ़ दल अपना राजनैतिक हित साधने में सफल हो रहा है !
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
'नेशनलिज्म इन इंडिया' नामक निबन्ध में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने लिखा है कि राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता प्राप्त करने का यांत्रिक प्रयास करना है ! गुरुदेव टैगोर के मुताबिक राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः विज्ञापन तथा अन्य माध्यमों का लाभ उठाकर राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त हुई हैं ! शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने राष्ट्रों में पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है ! गुरुदेव के अनुसार यह सीधे सीधे मानव जीवन के साथ खिलवाड है ! क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसी परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है। फलस्वरूप राष्ट्र समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर हाबी हो जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है। गुरू रवीन्द्र नाथ ने इसी आधार पर राष्ट्रवाद की आलोचना की थी। उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के स्वार्थ का ऐसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता तथा आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं होता है । दुर्बल एवं असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल होता है ! इससे साम्राज्यवाद उपजता है जो अंततः मानवता का संहारक बनता है। राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि होने पर कोई नियंत्रण सम्भव नहीं होता और इसके विस्तार की कोई सीमा भी नहीं होती !
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के मुताबिक उसकी इस अनियांत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित होते हैं। राष्ट्रों का पारस्परिक संघर्ष जब विश्वव्यापी युद्ध का रूप धारण कर लेता है तब उसकी संहारकता के सामने सब कुछ नष्ट हो जाता है। शायद यही वज़ह है कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद को निर्माण का मार्ग न मानकर उसे विनाश का मार्ग माना है ! यह बात अलग है कि हमारे अपने देश में पिछले एक दशक से राष्ट्रवाद के नाम पर जो कुछ हो रहा है उस पर पूरा देश चुप्पी साधे हुए हुए है। जबकि राष्ट्रवाद की धारणा किस तरह शक्ति के आधार पर विभिन्न मानवी समुदायों में वैमनस्य तथा स्वार्थ उत्पन्न करती है इस बात को उजागर करता रवीन्द्रनाथ टैगोर का मौलिक चिंतन समूचे विश्व के लिए आज तक अमूल्य योगदान बना हुआ है। लेकिन जिस देश व समाज में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने जन्म लिया और मौजूदा दौर में जहां उनकी पूजा की जाती है। उसी देश व समाज के लोगों ने गुरदेव के मौलिक चिंतन को नकार रखा है !यही नहीं उसी देश व समाज के लोग स्वार्थ और सत्ता के लिए गुरुदेव के मौलिक चिंतन की भाषा व परिभाषा भी अपने हिसाब से तय करने में जुटे हुए हैं। जो हमारे समाज व देश के लिए न सिर्फ चिंतनीय है बल्कि बेहद घातक भी है !
जिस छद्म राष्ट्रवाद की हम यहां पर चर्चा कर रहे हैं और जिसे चिंतकों का एक बड़ा वर्ग गलत मानते हुए उसे दक्षिणपंथी व दुराग्रही सोच की परिणति बताकर उसका विरोध कर रहा है उसमें उनकी गलती कम और उस वर्ग की गलती ज्यादा है जो 'राष्ट्रवाद' को किसी वंदना या गोहत्या के विरोध तक ही सीमित किये हुए हैं। ऐसे लोग जो अपने प्रधानमंत्री की नीतियों का विरोध करने वालों या फिर भारत माता की जय का नारा लगाने से इन्कार करने वालों पर राष्ट्रविरोधी होने का आरोप मढ़कर उन्हें ‘पाकिस्तान’ भेजने की सलाह दे रहे हैं वो राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीय समाज में जहर घोल रहे हैं। क्योंकि राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा और मूल भारतीय राष्ट्रवाद में काफी अंतर है। कौन नहीं जानता कि यूरोपीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति चेतना के क्रमिक आध्यात्मिक विकास से न होकर चर्च के तानाशाही रवैये के खिलाफ औपनिवेशिक शक्तियों को उखाड़ फेंकने की प्रक्रिया से शुरू हुई थी। राष्ट्रवाद की यूरोपीय परिभाषा के अनुसार राष्ट्र ऐसे लोगों के समूह से बनता है जो समान भाषा, समान पंथ या समान इतिहास वाले हों ! यही नहीं उनके गृहक्षेत्र एक हों और अपने शासक के लिए समर्पण के साथ ही एकता का भाव भी हो ! लेकिन इस आधार पर तो भारत कभी भी खरा नहीं उतर सकता ! क्योंकि भारत विविधताओं से भरा हुआ राष्ट्र है और जिसकी वज़ह से ही मौजूदा भारत की पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान भी है ! चूंकि गांधी जी की परिकल्पना का भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक उत्थान की सीढ़ी का पर्याय मात्र है ! जबकि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का मत गांधी जी से भिन्न था ! मौजूदा दौर में चिंता का मुख्य विषय भी यही है कि वसुधैव कुटुंबकम और सर्वधर्म समभाव को आत्मसात करने वाले भारत में जिस छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर आम लोगों को ग़ुमराह किया जा रहा वह किसी भी दृष्टि से देश के लिए हितकर नहीं हो सकता ! हां इतना जरूर है कि मौजूदा राष्ट्रवाद से सत्तारूढ़ दल अपना राजनैतिक हित साधने में सफल हो रहा है !
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
27th February, 2021