यूरीड मीडिया, दिनेश दुबे- बेरोज़गारी, मंहगाई और भृष्टाचार को मुद्दा बनाकर सत्ता में आयी भाजपा अब भले ही जनता के निशाने पर आ रही हो, किन्तु जाति, धर्म और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे अभी भी उसके लिए संजीवनी बने हुए हैं ! तभी तो रिकार्ड मंहगाई और बेरोज़गारी के साथ ही देश में बढ़ते हुए भृष्टाचार के बाद भी आम जनता में सत्तापक्ष के लिए ख़ामोशी छाई है ! यह बात अलग है कि जनता में छाई यह ख़ामोशी विपक्षी नेताओं के स्वार्थ की वज़ह से है ! क्योंकि विपक्ष के पास सत्तापक्ष के खिलाफ़ खड़े होने की न तो शक्ति है और न ही सोंच ! शायद यही वज़ह है कि सत्तापक्ष पूरी तरह से निरंकुश होकर मनमानी कर रहा है ! जबकि विपक्ष के सभी नेता आम जनता को बचाने के बजाय "इकला चलो" नीति के तहत अपना-अपना वोटबैंक बचाने में जुटे हैं ! तभी तो जन आंदोलन का रूप ले चुके किसान आंदोलन को भी सरकार अपनी ज़िद से जमींदोज करने पर उतारु है ! हालांकि ऐसा हो पाना सम्भव नहीं है क्योंकि हर काम की अपनी क़ीमत होती है ! इसलिए सत्तापक्ष को भी इस काम की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी !
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सदन में जिस तरह धन्यवाद ज्ञापित करते हुए "किसान कानून" व "किसान आंदोलन" पर सरकार और अपनी पार्टी का पक्ष रखकर पूरे विपक्ष की धज्जियां उड़ाई उस पर बहुत गहराई से गौर किया जाना चाहिए ! उससे भी अधिक गहराई से गौर किया जाना चाहिए विपक्ष की विवशता पर, क्योंकि विपक्ष की विवशता देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है ! कोरोना काल में केंद्र सरकार द्वारा विधेयक के जरिये संशोधित कर लागू किये गए तीनों कृषि कानूनों पर यूपी में सपा और पंजाब में कांग्रेस को छोंड़कर सभी विपक्षी राजनीतिक दल किसान आंदोलन में कूदने के बजाय किनारे पर ही बने रहे ! आश्चर्यजनक बात तो ये है कि "किसान आंदोलन" और उसे चलाने वाले किसान नेता सरकार के ज़िद्दी रवैय्ये पर लगातार विपक्ष को जिम्मेदार तो ठहराते रहे हैं ! लेकिन साथ ही इस बात का भी खुलकर ऐलान करते रहे कि उनका यह आंदोलन पूर्णतः गैर राजनैतिक रहेगा और किसी भी राजनैतिक दल को उनके मंच पर आने की इजाज़त नहीं होगी ! ऐसे में किसानों का आंदोलन पूर्ण बहुमत की सरकार के सामने वह दबाव नहीं बना पाया जिसकी उसे दरकार थी ! हां इतना ज़रूर हुआ कि किसान आंदोलन के उतार-चढ़ाव ने भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता चौधरी राकेश टिकैत को सर्वमान्य किसान नेता के रूप में स्थापित कर दिया है !
यही नहीं सक्रिय राजनीति में जाकर चुनावी दंगल में दो बार हाँथ आजमा चुके राकेश टिकैत ने न सिर्फ पश्चिमी यूपी में टूटी हुई ''जाट-मुस्लिम एकता" को पुनर्स्थापित करके सत्तारूढ़ भाजपा के लिए खाई खोद दी है, बल्कि हरियाणा के जाटों और पंजाब के सिखों के बीच सेतु बनकर केंद्र सरकार के लिए मुसीबत भी खड़ी कर दी है ! सरकारी आंकड़ों और ज़मीनी हकीक़त से दूर भागती सरकार आखिर कब तक बहुमत और विपक्ष की विवशता की आड़ में देश की आम जनता से खिलवाड़ करती रहेगी ? क्योंकि सरकारी आंकड़े ख़ुद ही बताते हैं कि पंजाब और हरियाणा को छोंड़कर किसी भी प्रदेश के किसानों ने आज तक एमएसपी पर 15 फ़ीसदी से अधिक फ़सल नहीं बेंच पाई है ! इसमें गेंहूँ और धान की ही मुख्य फसल है ! बिहार और महाराष्ट्र जैसे कई प्रदेश तो ऐसे हैं जहां किसानों की फसल एमएसपी पर नाममात्र के लिए ख़रीदी जाती है ! शायद यही वज़ह है कि पंजाब और हरियाणा के किसान सरकारी खरीद से लाभान्वित होकर सम्पन्न हैं और इसीलिए वो एमएसपी पर कानून बनाने की मांग कर रहे हैं ! जबकि सरकार देश के करोड़ों किसानों में भृम फैलाकर आंदोलित किसानों को सिर्फ़ आश्वासन देकर टालने का प्रयास कर रही है ! मजे की बात तो ये हैं कि कृषि कानून बनाने वाली सरकार कानून के विषय में बताने के बजाय उल्टे किसानों से कानूनों के विषय में पूँछ रही है।
ऐसे में अब जनता को ही ख़ुद अपने सवालों के जबाव तलाशने पड़ेंगे ! जनता को अब ख़ुद से ही पूँछना होगा कि जब वर्तमान सरकार भी वही करेगी जो पिछली सरकारों ने किया था तो फिर उन्होंने यह सरकार चुनी ही क्यों थी ? तो क्या अब हमारे देश में "जाति और धर्म" के नाम पर ही वोट डाले जायेंगे ? ये ऐसे सुलगते हुए सवाल हैं जिनके जबाव सरकार कभी नहीं देगी ! सरकार तो वही करेगी जो उसे अच्छा लगेगा और उन्हीं लोगों के लिए काम भी करेगी जो उसके काम आयेगा या सरकार के साथ रहते हुए उसकी हाँ में हाँ मिलाएगा ! ऐसे में सीधे तौर पर समझें या फिर प्रधानमंत्री के भाषणों पर गौर करें तो उनकी सरकार वही कर रही है जो पूर्ववर्ती सरकारों ने किया था ? इससे साफ है कि सत्तारूढ़ सरकार के मुखिया द्वारा देश की जनता को लच्छेदार भाषणों और जुमलों के जरिये भरमाया गया था ! चुनाव में बेरोजगारी, मंहगाई और भृष्टाचार को खत्म करते हुए विदेशों में जमा भारत का कालाधन वापस लाने के मुद्दों पर देश की जनता से झूठ बोला गया था ! ऐसे में सरकार से जनता का विश्वास उठना लाज़िमी है ! एक सच्चाई यह भी है कि सत्ता के नशे में चूर किसी भी सरकार को कभी जनाक्रोश दिखाई नहीं पड़ता ! क्योंकि सरकारी तंत्र किसी भी तरह के आंदोलन को कभी सफल नहीं बताता ! जबकि हकीकत में कोई भी आंदोलन कभी असफ़ल नहीं होता !
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सदन में जिस तरह धन्यवाद ज्ञापित करते हुए "किसान कानून" व "किसान आंदोलन" पर सरकार और अपनी पार्टी का पक्ष रखकर पूरे विपक्ष की धज्जियां उड़ाई उस पर बहुत गहराई से गौर किया जाना चाहिए ! उससे भी अधिक गहराई से गौर किया जाना चाहिए विपक्ष की विवशता पर, क्योंकि विपक्ष की विवशता देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है ! कोरोना काल में केंद्र सरकार द्वारा विधेयक के जरिये संशोधित कर लागू किये गए तीनों कृषि कानूनों पर यूपी में सपा और पंजाब में कांग्रेस को छोंड़कर सभी विपक्षी राजनीतिक दल किसान आंदोलन में कूदने के बजाय किनारे पर ही बने रहे ! आश्चर्यजनक बात तो ये है कि "किसान आंदोलन" और उसे चलाने वाले किसान नेता सरकार के ज़िद्दी रवैय्ये पर लगातार विपक्ष को जिम्मेदार तो ठहराते रहे हैं ! लेकिन साथ ही इस बात का भी खुलकर ऐलान करते रहे कि उनका यह आंदोलन पूर्णतः गैर राजनैतिक रहेगा और किसी भी राजनैतिक दल को उनके मंच पर आने की इजाज़त नहीं होगी ! ऐसे में किसानों का आंदोलन पूर्ण बहुमत की सरकार के सामने वह दबाव नहीं बना पाया जिसकी उसे दरकार थी ! हां इतना ज़रूर हुआ कि किसान आंदोलन के उतार-चढ़ाव ने भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता चौधरी राकेश टिकैत को सर्वमान्य किसान नेता के रूप में स्थापित कर दिया है !
यही नहीं सक्रिय राजनीति में जाकर चुनावी दंगल में दो बार हाँथ आजमा चुके राकेश टिकैत ने न सिर्फ पश्चिमी यूपी में टूटी हुई ''जाट-मुस्लिम एकता" को पुनर्स्थापित करके सत्तारूढ़ भाजपा के लिए खाई खोद दी है, बल्कि हरियाणा के जाटों और पंजाब के सिखों के बीच सेतु बनकर केंद्र सरकार के लिए मुसीबत भी खड़ी कर दी है ! सरकारी आंकड़ों और ज़मीनी हकीक़त से दूर भागती सरकार आखिर कब तक बहुमत और विपक्ष की विवशता की आड़ में देश की आम जनता से खिलवाड़ करती रहेगी ? क्योंकि सरकारी आंकड़े ख़ुद ही बताते हैं कि पंजाब और हरियाणा को छोंड़कर किसी भी प्रदेश के किसानों ने आज तक एमएसपी पर 15 फ़ीसदी से अधिक फ़सल नहीं बेंच पाई है ! इसमें गेंहूँ और धान की ही मुख्य फसल है ! बिहार और महाराष्ट्र जैसे कई प्रदेश तो ऐसे हैं जहां किसानों की फसल एमएसपी पर नाममात्र के लिए ख़रीदी जाती है ! शायद यही वज़ह है कि पंजाब और हरियाणा के किसान सरकारी खरीद से लाभान्वित होकर सम्पन्न हैं और इसीलिए वो एमएसपी पर कानून बनाने की मांग कर रहे हैं ! जबकि सरकार देश के करोड़ों किसानों में भृम फैलाकर आंदोलित किसानों को सिर्फ़ आश्वासन देकर टालने का प्रयास कर रही है ! मजे की बात तो ये हैं कि कृषि कानून बनाने वाली सरकार कानून के विषय में बताने के बजाय उल्टे किसानों से कानूनों के विषय में पूँछ रही है।
ऐसे में अब जनता को ही ख़ुद अपने सवालों के जबाव तलाशने पड़ेंगे ! जनता को अब ख़ुद से ही पूँछना होगा कि जब वर्तमान सरकार भी वही करेगी जो पिछली सरकारों ने किया था तो फिर उन्होंने यह सरकार चुनी ही क्यों थी ? तो क्या अब हमारे देश में "जाति और धर्म" के नाम पर ही वोट डाले जायेंगे ? ये ऐसे सुलगते हुए सवाल हैं जिनके जबाव सरकार कभी नहीं देगी ! सरकार तो वही करेगी जो उसे अच्छा लगेगा और उन्हीं लोगों के लिए काम भी करेगी जो उसके काम आयेगा या सरकार के साथ रहते हुए उसकी हाँ में हाँ मिलाएगा ! ऐसे में सीधे तौर पर समझें या फिर प्रधानमंत्री के भाषणों पर गौर करें तो उनकी सरकार वही कर रही है जो पूर्ववर्ती सरकारों ने किया था ? इससे साफ है कि सत्तारूढ़ सरकार के मुखिया द्वारा देश की जनता को लच्छेदार भाषणों और जुमलों के जरिये भरमाया गया था ! चुनाव में बेरोजगारी, मंहगाई और भृष्टाचार को खत्म करते हुए विदेशों में जमा भारत का कालाधन वापस लाने के मुद्दों पर देश की जनता से झूठ बोला गया था ! ऐसे में सरकार से जनता का विश्वास उठना लाज़िमी है ! एक सच्चाई यह भी है कि सत्ता के नशे में चूर किसी भी सरकार को कभी जनाक्रोश दिखाई नहीं पड़ता ! क्योंकि सरकारी तंत्र किसी भी तरह के आंदोलन को कभी सफल नहीं बताता ! जबकि हकीकत में कोई भी आंदोलन कभी असफ़ल नहीं होता !
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
20th February, 2021