इतिहासकार डॉक्टर अनिल चतुर्वेदी- यूरीड मीडिया
इंदिरा सरकार के समय फारुख अब्दुल्लाह के बहनोई जी० एम० शाह के नेतृत्व में बनी सरकार के शुरुवाती 90 दिनों में 72 दिन कर्फ्यू लगा रहा। जनता ने शाह की सरकार को कर्फ्यू सरकार की संज्ञा दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 5 अगस्त को धारा 370 हटाया है तब से लेकर अभी तक किसी न किसी क्षेत्र में जम्मू कश्मीर में कर्फ्यू लगा हुआ है। सवाल यह उठ रहा है कि पुराने कर्फ्यू सरकार का रिकॉर्ड मोदी सरकार में टूट जायेगा। कांग्रेस आज जो भी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर भाजपा सरकार का विरोध कर रही है यह ऐतिहासिक सच है कि कांग्रेस ने भी सत्ता के मद में लोकतांत्रिक मूल्यों का दमन किया है। इंदिरा गाँधी ने जम्मू कश्मीर में शाह अब्दुल्लाह के निधन के बाद फारुख अब्दुल्लाह को मुख्यमंत्री बनवाया लेकिन जब फारुख ने (जम्मू एंड कश्मीर ग्रांट ऑफ़ परमिट फॉर रिसेटेलमेंट) पुनर्वास बिल को लेकर मतभेद पैदा हुआ तो इंदिरा गाँधी ने फारुख को हटाने का मन बना लिया। 13 अक्टूबर 1983 दौरान जब श्रीनगर में भारत वेस्टइंडीज़ एकदिवसीय क्रिकेट मैच के दौरान खुलेआम देशद्रोही तत्वों ने पाकिस्तानी झंडा फहराया तो इंदिरा गाँधी ने जम्मू कश्मीर के राजयपाल बी के नेहरू को फारुख की सरकार बर्खास्त करने की रिपोर्ट देने के लिए दवाब बनाया लेकिन बी के नेहरू ने इंदिरा गाँधी की बात नहीं मानी और रातोरात उनका तबादला किया गया और जगमोहन को नए राज्यपाल की कमान दी गयी। जगमोहन ने इंदिरा गाँधी के इशारे पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के 13 विधायकों से समर्थन वापसी का पत्र लेकर जी एम शाह को मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी। जबकि फारुख अब्दुल्लाह सविधान की धारा 92 के तहत जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कराना चाहते थे लेकिन इंदिरा गाँधी राजी नहीं हुई। जी एम शाह के नेतृत्व में बनी सरकार के शुरुवाती 90 दिनों में जनता की आक्रोश 72 दिन कर्फ्यू लगा रहा है और जनता कर्फ्यू सरकार कहने लगी। कांग्रेस ने भी जम्मू कश्मीर में समय समय पर मतभेदों को लेकर सरकार गिराने और सरकार बनवाने का कार्य किया है। शाह ने मुख्यमंत्री बनने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के 13 विद्रोही विधायकों को कैबिनेट मंत्री बना दिया। ढाई साल तक चली शाह की सरकार भ्रष्टतम सरकार में गिनी जाती है।
जम्मू कश्मीर को लेकर जो आरोप लग रहे है कि दो परिवारों ने सत्ता की भागीदारी की और मनमाने तरीके से लुटा। ऐतिहासित तथ्य यह है कि तमाम उतार चढ़ावों के बीच शेख अब्दुल्लाह जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में पुत्र मोह में फारुख अब्दुल्लाह को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उत्तराधिकारी का चयन लोकतांत्रिक ढंग से न कर एक पारिवारिक सत्ता हस्तांतरण का मामला बन गया। जीवन भर शेख के हर संघर्ष में साथ रहे अफजल बेग को 1978 में गद्दारी का आरोप लगा कर पार्टी से निकाल दिया गया। पार्टी में शेख के दामाद जी0 एम0 शाह और बेटे फारुख का प्रभुत्व बढ़ता गया। जी० एम0 शाह खुद को शेख साहब का उत्तराधिकारी मानते थे। लेकिन शेख साहब ने बेटे के पक्ष में फैसला लिया और 21 अगस्त 1981 को इकबाल पार्क की सार्वजनिक सभा में उन्होंने फारुख को "काटों का ताज पहनाने की घोषणा कर दी और मेडिकल की शिक्षा हासिल करके लौटे फारुख को अपने मंत्रीमंडल में स्वास्थ मंत्री के रूप में शामिल किया।" 8 सितम्बर 1982 को शेख अब्दुल्लाह की मृत्यु हो गयी। एम0 जे0 अकबर कहते है कि "शेख अब्दुल्लाह तमाम उतार चढ़ाव के बीच वह एक हिन्दुस्तानी की तरह जीये और हिन्दुस्तानी की तरह ही मरे।" इंदिरा गाँधी ने शेख की मृत्यु की खबर मिलते ही सबसे पहले फारुख के मुख्यमंत्री पद को सुनिश्चित किया। कश्मीरियों तक यह खबर पहुंचने से पहले ही कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई गयी। जिसमे जी0 एम0 शाह ने फारुख के नाम का प्रस्ताव किया और डी डी ठाकुर ने सर्मथन किया। रात के 10बजे फारुख ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। फारुख को सबसे पहले जिस समस्या से रूबरू होना पड़ा वह थी पुनर्वास बिल (जम्मू एंड कश्मीर ग्रांट ऑफ़ परमिट फॉर रिसेटेलमेंट) इसे लोगों ने उपद्रवी कानून कहा और इस कानून से सबसे बड़ा खतरा था कि भारत के विरोधी तत्व कश्मीर में स्थापित हो जायेंगे।
यह बिल विधानसभा में पास न हो सका। इसी पुनर्वास बिल के मुद्दे पर इंदिरा गाँधी व फारूख ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। परिणाम स्वरुप चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसी स्थिति पैदा हुई। जहाँ जम्मू में भाजपा के परम्परागत सीटों पर कांग्रेस ने कब्ज़ा किया वहां उसे 26 सीटों और 30.1 प्रतिशत वोट हासिल किये लेकिन घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 46 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया। भीम सिंह की पैंथर पार्टी और अब्दुल गनी लोन की पीपल कॉन्फ्रेंस को 1-1 सीट मिली। भाजपा को कोई सीट न मिली। कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच वैमनस्य बढ़ता गया। फारुख ने श्रीनगर की जामा मस्जिद से घोषणा की कि मैं कांग्रेस से देश की हर गली, हर नुक्कड़ पर लडूंगा और वह देश के प्रमुख विपक्षी नेताओ के साथ शामिल हो गए। यह इंदिरा गाँधी के लिए एक चुनौती जैसा था। इसी बीच 13 अक्टूबर 1983 के दौरान श्रीनगर में भारत और वेस्टइंडीज़ के बीच एक दिवसीय क्रिकेट मैच के दौरान उपद्रवी तत्वों ने मैच में बाधा पहुंचाने की कोशिश की और खुलेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए गए।
इंदिरा गाँधी को अवसर मिल गया उन्होंने फारुख की सरकार को बर्खास्त करने के लिए बी० के० नेहरू को कहा लेकिन उन्होंने इंदिरा गाँधी की बात नहीं मानी जिससे नाराज होकर इंदिरा गाँधी ने उनका तबादला करते हुए अप्रैल 1984 में जगमोहन को राज्यपाल बना के भेजा गया और कांग्रेस की शह पर जी0 एम0 शाह के नेतृत्व में 1 जुलाई को नेशनल कांग्रेस के 13 विधायकों ने राज्यपाल से संपर्क किया और समर्थन वापस लेने की बात कही। जगमोहन ने उनका पूरा सहयोग किया और फारुख की जल्दबाज़ी तथा भावुकता ने उनका काम और आसान कर दिया।
फारुख अब्दुल्लाह ने सविधान की धारा 92 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की। इंदिरा इस पर राजी नहीं थी और अंतत उसी शाम जी0 एम0 शाह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। शाह ने सभी 13 विधायकों को कैबिनेट मंत्री बना दिया। 31 जुलाई को शाह ने अपना बहुमत साबित कर दिया और कश्मीर के इतिहास में शायद सबसे भ्रष्ट सरकार का दौड़ अगले ढाई साल सत्ता में रहा। शाह को कश्मीरी जनता का तीखा विरोध झेलना पड़ा। सत्ता के पहले 90 दिनों में से 72 दिनों का कर्फ्यू लगा रहा और जनता ने इसे कर्फ्यू सरकार का नाम दिया। (इसी बीच 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के निर्णय के बाद पहली बार अनंतनाग में कश्मीरी पंडितों के घर और मंदिर जलाने की घटनाएं हुई। अनंतनाग मुफ्ती मोहम्मद सईद का क्षेत्र था और उन पर दंगे भड़काने का आरोप लगाया गया इसके पीछे पूर्णतया मुफ्ती साहब का हाथ था।) 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी जनवरी 1985 में राजीव गाँधी और फारुख अब्दुल्लाह की मुलाकात हुई। यहाँ मुफ्ती मोहम्मद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन राजीव गाँधी ने एक बार फारुख से समझौता करना उचित समझा। 7 मार्च 1986 को जी0 एम0 शाह की सरकार बर्खास्त कर दी गयी और आज़ादी के बाद पहली बार "कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा" जगमोहन अगले 6 महीने कश्मीर के प्रशासक रहे। राजीव गाँधी ने कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन का प्रस्ताव रखा और इस बार फिर फारुख अंतत इसके लिए राजी हो गए। बलराज पूरी लिखते है कि "फारुख की देश भक्ति पर से सन्देश जल्दी दूर हो गया जब उन्होंने विपक्ष से सम्बन्ध तोड़ कर कांग्रेस से सम्बन्ध सुधार लिए और कांग्रेस ने उन्हें देशभक्ति का प्रमाण पत्र जारी कर मुख्यमंत्री बनाने में हमेशा सहयोग किया" फारुख अब्दुल्लाह भी समय समय पर रंग बदलते रहे और अटल बिहारी सरकार में भी फारुख अब्दुल्लाह शामिल हुए। बदली परिस्थियों में फारुख कांग्रेस के साथ तो पीडीपी की महबूबा मुफ़्ती भाजपा के साथ खड़ी रही। विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद महबूबा ने 3 साल तक भाजपा के साथ मिल कर सरकार चलायी। भाजपा ने अपने एजेंडे को लागू करने के लिए लोकसभा चुनाव से पहले महबूबा से रिश्ता तोड़ा और 2019 में अपार बहुमत मिलने के बाद धारा 370 और 35A को हटा दिया। इस मुद्दे पर भाजपा के खिलाफ फारुख और महबूबा दोनों है। कांग्रेस 370 का सीधा विरोध तो नहीं कर रही लेकिन कांग्रेस इसे लागू करने के तरीके पर सवाल उठाती रही।
5 अगस्त से लेकर 7 अक्टूबर तक 62 दिन पूरे हो गए और जम्मू कश्मीर में पूरी तरह कर्फ्यू नहीं हटा है। स्थिति सामान्य होने की तरफ बढ़ रही है। फारुख अब्दुल्लाह और मुफ्ती से पार्टी के नेताओ को मिलने की इज़ाज़त दे गयी लेकिन सवाल आज भी यही उठ रहा है कि पूरे कश्मीर से कर्फ्यू कब हटेगा? क्या 72 दिनों के पुराने रिकॉर्ड मोदी सरकार में टूट तो नहीं जायेगा।
इंदिरा सरकार के समय फारुख अब्दुल्लाह के बहनोई जी० एम० शाह के नेतृत्व में बनी सरकार के शुरुवाती 90 दिनों में 72 दिन कर्फ्यू लगा रहा। जनता ने शाह की सरकार को कर्फ्यू सरकार की संज्ञा दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 5 अगस्त को धारा 370 हटाया है तब से लेकर अभी तक किसी न किसी क्षेत्र में जम्मू कश्मीर में कर्फ्यू लगा हुआ है। सवाल यह उठ रहा है कि पुराने कर्फ्यू सरकार का रिकॉर्ड मोदी सरकार में टूट जायेगा। कांग्रेस आज जो भी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर भाजपा सरकार का विरोध कर रही है यह ऐतिहासिक सच है कि कांग्रेस ने भी सत्ता के मद में लोकतांत्रिक मूल्यों का दमन किया है। इंदिरा गाँधी ने जम्मू कश्मीर में शाह अब्दुल्लाह के निधन के बाद फारुख अब्दुल्लाह को मुख्यमंत्री बनवाया लेकिन जब फारुख ने (जम्मू एंड कश्मीर ग्रांट ऑफ़ परमिट फॉर रिसेटेलमेंट) पुनर्वास बिल को लेकर मतभेद पैदा हुआ तो इंदिरा गाँधी ने फारुख को हटाने का मन बना लिया। 13 अक्टूबर 1983 दौरान जब श्रीनगर में भारत वेस्टइंडीज़ एकदिवसीय क्रिकेट मैच के दौरान खुलेआम देशद्रोही तत्वों ने पाकिस्तानी झंडा फहराया तो इंदिरा गाँधी ने जम्मू कश्मीर के राजयपाल बी के नेहरू को फारुख की सरकार बर्खास्त करने की रिपोर्ट देने के लिए दवाब बनाया लेकिन बी के नेहरू ने इंदिरा गाँधी की बात नहीं मानी और रातोरात उनका तबादला किया गया और जगमोहन को नए राज्यपाल की कमान दी गयी। जगमोहन ने इंदिरा गाँधी के इशारे पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के 13 विधायकों से समर्थन वापसी का पत्र लेकर जी एम शाह को मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी। जबकि फारुख अब्दुल्लाह सविधान की धारा 92 के तहत जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कराना चाहते थे लेकिन इंदिरा गाँधी राजी नहीं हुई। जी एम शाह के नेतृत्व में बनी सरकार के शुरुवाती 90 दिनों में जनता की आक्रोश 72 दिन कर्फ्यू लगा रहा है और जनता कर्फ्यू सरकार कहने लगी। कांग्रेस ने भी जम्मू कश्मीर में समय समय पर मतभेदों को लेकर सरकार गिराने और सरकार बनवाने का कार्य किया है। शाह ने मुख्यमंत्री बनने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के 13 विद्रोही विधायकों को कैबिनेट मंत्री बना दिया। ढाई साल तक चली शाह की सरकार भ्रष्टतम सरकार में गिनी जाती है।
जम्मू कश्मीर को लेकर जो आरोप लग रहे है कि दो परिवारों ने सत्ता की भागीदारी की और मनमाने तरीके से लुटा। ऐतिहासित तथ्य यह है कि तमाम उतार चढ़ावों के बीच शेख अब्दुल्लाह जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में पुत्र मोह में फारुख अब्दुल्लाह को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उत्तराधिकारी का चयन लोकतांत्रिक ढंग से न कर एक पारिवारिक सत्ता हस्तांतरण का मामला बन गया। जीवन भर शेख के हर संघर्ष में साथ रहे अफजल बेग को 1978 में गद्दारी का आरोप लगा कर पार्टी से निकाल दिया गया। पार्टी में शेख के दामाद जी0 एम0 शाह और बेटे फारुख का प्रभुत्व बढ़ता गया। जी० एम0 शाह खुद को शेख साहब का उत्तराधिकारी मानते थे। लेकिन शेख साहब ने बेटे के पक्ष में फैसला लिया और 21 अगस्त 1981 को इकबाल पार्क की सार्वजनिक सभा में उन्होंने फारुख को "काटों का ताज पहनाने की घोषणा कर दी और मेडिकल की शिक्षा हासिल करके लौटे फारुख को अपने मंत्रीमंडल में स्वास्थ मंत्री के रूप में शामिल किया।" 8 सितम्बर 1982 को शेख अब्दुल्लाह की मृत्यु हो गयी। एम0 जे0 अकबर कहते है कि "शेख अब्दुल्लाह तमाम उतार चढ़ाव के बीच वह एक हिन्दुस्तानी की तरह जीये और हिन्दुस्तानी की तरह ही मरे।" इंदिरा गाँधी ने शेख की मृत्यु की खबर मिलते ही सबसे पहले फारुख के मुख्यमंत्री पद को सुनिश्चित किया। कश्मीरियों तक यह खबर पहुंचने से पहले ही कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई गयी। जिसमे जी0 एम0 शाह ने फारुख के नाम का प्रस्ताव किया और डी डी ठाकुर ने सर्मथन किया। रात के 10बजे फारुख ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। फारुख को सबसे पहले जिस समस्या से रूबरू होना पड़ा वह थी पुनर्वास बिल (जम्मू एंड कश्मीर ग्रांट ऑफ़ परमिट फॉर रिसेटेलमेंट) इसे लोगों ने उपद्रवी कानून कहा और इस कानून से सबसे बड़ा खतरा था कि भारत के विरोधी तत्व कश्मीर में स्थापित हो जायेंगे।
यह बिल विधानसभा में पास न हो सका। इसी पुनर्वास बिल के मुद्दे पर इंदिरा गाँधी व फारूख ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। परिणाम स्वरुप चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसी स्थिति पैदा हुई। जहाँ जम्मू में भाजपा के परम्परागत सीटों पर कांग्रेस ने कब्ज़ा किया वहां उसे 26 सीटों और 30.1 प्रतिशत वोट हासिल किये लेकिन घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 46 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया। भीम सिंह की पैंथर पार्टी और अब्दुल गनी लोन की पीपल कॉन्फ्रेंस को 1-1 सीट मिली। भाजपा को कोई सीट न मिली। कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच वैमनस्य बढ़ता गया। फारुख ने श्रीनगर की जामा मस्जिद से घोषणा की कि मैं कांग्रेस से देश की हर गली, हर नुक्कड़ पर लडूंगा और वह देश के प्रमुख विपक्षी नेताओ के साथ शामिल हो गए। यह इंदिरा गाँधी के लिए एक चुनौती जैसा था। इसी बीच 13 अक्टूबर 1983 के दौरान श्रीनगर में भारत और वेस्टइंडीज़ के बीच एक दिवसीय क्रिकेट मैच के दौरान उपद्रवी तत्वों ने मैच में बाधा पहुंचाने की कोशिश की और खुलेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए गए।
इंदिरा गाँधी को अवसर मिल गया उन्होंने फारुख की सरकार को बर्खास्त करने के लिए बी० के० नेहरू को कहा लेकिन उन्होंने इंदिरा गाँधी की बात नहीं मानी जिससे नाराज होकर इंदिरा गाँधी ने उनका तबादला करते हुए अप्रैल 1984 में जगमोहन को राज्यपाल बना के भेजा गया और कांग्रेस की शह पर जी0 एम0 शाह के नेतृत्व में 1 जुलाई को नेशनल कांग्रेस के 13 विधायकों ने राज्यपाल से संपर्क किया और समर्थन वापस लेने की बात कही। जगमोहन ने उनका पूरा सहयोग किया और फारुख की जल्दबाज़ी तथा भावुकता ने उनका काम और आसान कर दिया।
फारुख अब्दुल्लाह ने सविधान की धारा 92 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की। इंदिरा इस पर राजी नहीं थी और अंतत उसी शाम जी0 एम0 शाह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। शाह ने सभी 13 विधायकों को कैबिनेट मंत्री बना दिया। 31 जुलाई को शाह ने अपना बहुमत साबित कर दिया और कश्मीर के इतिहास में शायद सबसे भ्रष्ट सरकार का दौड़ अगले ढाई साल सत्ता में रहा। शाह को कश्मीरी जनता का तीखा विरोध झेलना पड़ा। सत्ता के पहले 90 दिनों में से 72 दिनों का कर्फ्यू लगा रहा और जनता ने इसे कर्फ्यू सरकार का नाम दिया। (इसी बीच 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के निर्णय के बाद पहली बार अनंतनाग में कश्मीरी पंडितों के घर और मंदिर जलाने की घटनाएं हुई। अनंतनाग मुफ्ती मोहम्मद सईद का क्षेत्र था और उन पर दंगे भड़काने का आरोप लगाया गया इसके पीछे पूर्णतया मुफ्ती साहब का हाथ था।) 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी जनवरी 1985 में राजीव गाँधी और फारुख अब्दुल्लाह की मुलाकात हुई। यहाँ मुफ्ती मोहम्मद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन राजीव गाँधी ने एक बार फारुख से समझौता करना उचित समझा। 7 मार्च 1986 को जी0 एम0 शाह की सरकार बर्खास्त कर दी गयी और आज़ादी के बाद पहली बार "कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा" जगमोहन अगले 6 महीने कश्मीर के प्रशासक रहे। राजीव गाँधी ने कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन का प्रस्ताव रखा और इस बार फिर फारुख अंतत इसके लिए राजी हो गए। बलराज पूरी लिखते है कि "फारुख की देश भक्ति पर से सन्देश जल्दी दूर हो गया जब उन्होंने विपक्ष से सम्बन्ध तोड़ कर कांग्रेस से सम्बन्ध सुधार लिए और कांग्रेस ने उन्हें देशभक्ति का प्रमाण पत्र जारी कर मुख्यमंत्री बनाने में हमेशा सहयोग किया" फारुख अब्दुल्लाह भी समय समय पर रंग बदलते रहे और अटल बिहारी सरकार में भी फारुख अब्दुल्लाह शामिल हुए। बदली परिस्थियों में फारुख कांग्रेस के साथ तो पीडीपी की महबूबा मुफ़्ती भाजपा के साथ खड़ी रही। विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद महबूबा ने 3 साल तक भाजपा के साथ मिल कर सरकार चलायी। भाजपा ने अपने एजेंडे को लागू करने के लिए लोकसभा चुनाव से पहले महबूबा से रिश्ता तोड़ा और 2019 में अपार बहुमत मिलने के बाद धारा 370 और 35A को हटा दिया। इस मुद्दे पर भाजपा के खिलाफ फारुख और महबूबा दोनों है। कांग्रेस 370 का सीधा विरोध तो नहीं कर रही लेकिन कांग्रेस इसे लागू करने के तरीके पर सवाल उठाती रही।
5 अगस्त से लेकर 7 अक्टूबर तक 62 दिन पूरे हो गए और जम्मू कश्मीर में पूरी तरह कर्फ्यू नहीं हटा है। स्थिति सामान्य होने की तरफ बढ़ रही है। फारुख अब्दुल्लाह और मुफ्ती से पार्टी के नेताओ को मिलने की इज़ाज़त दे गयी लेकिन सवाल आज भी यही उठ रहा है कि पूरे कश्मीर से कर्फ्यू कब हटेगा? क्या 72 दिनों के पुराने रिकॉर्ड मोदी सरकार में टूट तो नहीं जायेगा।
9th October, 2019