विजय शंकर पंकज-
लखनऊ, (यूरीड मीडिया)। प्रदेश के सबसे बड़ी सत्ता के यादवी परिवार में पिछले विधानसभा चुनाव से पहले उभरे विवाद ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सरकार से दूर कर दिया तो अब लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट के साथ ही शुरू हुए घमासान ने एक फिर भतीजे को चक्रब्यूह में फंसा दिया है। महाभारत के युद्ध में भी चर्चाओं ने ही भतीजे अभिमन्यू को चक्रब्यूह में घेरकर मौत की नींद सुला दिया तो इस बार भी दो
चचाओं (चचा शिवपाल - चचीया ससुर अमर सिंह ) ने अखिलेश को घेरने के लिए ताना-बाना तैयार कर दिया है। लोकसभा चुनाव में कहां अखिलेश विपक्षी महागठबंधन का नया राजनीतिक समीकरण करने की तैयारी में लगे थे कि चचाओं ने घर में ही घेरकर राजनीतिक अस्तित्व के लिए ही जूझने का संकट खड़ा कर दिया है।
सूत्रों के अनुसार परिवारिक विवाद से परेशान अखिलेश विपक्षी गठबंधन के लिए हर तरह का त्याग करने को तैयार है। अखिलेश के इस सरेन्डर के बाद भी विपक्षी गठबंधन में उनकी साख लगातार कमजोर ही होती जा रही है। बसपा और कांग्रेस के नेताओं की तरफ से यह लगातार संकेत मिल रहे है कि अखिलेश से गठबंधन का उन दलों को राज्य में कोई लाभ नही मिलने वाला है। बसपा सुप्रीमों मायावती ने पिछले दिनों अपने कोआर्डिनेटरों से गठबंधन पर जो रिपोर्ट मंगायी है उसमें यह बात उभर कर आयी है कि सपा का यादव वोट बैठक बसपा प्रत्याशियों को समर्थन देने को तैयार नही है और यह पिछड़ा वर्ग ऐन मौके पर भाजपा के साथ जा सकता है। इसी प्रकार की कुछ रिपोर्ट कांग्रेस खेमे से भी आ रही है। इसके विपरीत लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस बसपा से गठबंधन को तैयार बैठी है। यह गठबंधन राज्यों में सफल होने पर लोकसभा के लिए मजबूत तैयारी माना जा रहा है। सपा का इन राज्यों में कोई जनाधार नही है। दूसरी तरफ यादवी परिवार का विवाद इस कदर बढ़ गया है कि चचा शिवपाल सिंह यादव प्रदेश की सभी 80 लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने की तैयारी में जूट गये है। हालात यह है कि मुलायम सिंह यादव की मैनपुरी सीट को छोड़कर अखिलेश खेमे को एक-एक सीट के लिए लोहे का चना चबाने को मजबूर होना पड़ेगा। स्वयं अखिलेश के लिए कन्नौज सीट से जीत आसान नही होगी। पिछली बार भी कन्नौज से अखिलेश की पत्नी डिम्पल को सरकार रहते हुए भी जीत के लिए छठी का दूध याद आ गया था और भाजपा के नरम रूख के कारण ही आखिरी क्षण में जीत की घोषणा हो पायी। इस बार कन्नौज से अखिलेश को हराने के लिए शिवपाल तथा अमर सिंह की जोड़ी हर तरह की नाकेबंदी में जुटी है। अखिलेश को भी इसका पूरा एहसास है। अखिलेश कई बार इस बात का जिक्र भी कर चुके है कि विधानसभा चुनाव में सपा प्रत्याशियों को हराने के लिए पार्टी के ही कुछ लोगों ने अन्दरखाने साजिश की। कन्नौज ही नही बदांयू और फतेहपुर से भी सपा की स्थिति अत्यन्त खराब है। अब आजमगढ़ से मुलायम सिंह यादव के चुनाव न लड़ने से वहां पर स्थिति पहले ही कमजोर हो गयी है। आजमगढ़ के समाजवादी नेताओं बलराम यादव तथा दुर्गा यादव में पहले से ही छत्तीस का आकड़ा है। ऐसे में जिस किसी को भी टिकट मिलेगा तो दूसरा पक्ष उसे हराने का प्रयास करेगा। ऐसे में सपा को वर्ष 2014 की पांच लोकसभा सीटें बचाना ही सबसे बड़ी चुनौती है तो अन्य सीटों पर सपा प्रत्याशियों का भविष्य पूरी तरह से गठबंधन पर ही आश्रित है।
कांग्रेस की स्थिति में सुधार -- विपक्षी गठबंधन के इसी उहापोह में मुस्लिम मतदाता भी उलझा हुआ है। मुस्लिम मतदाता अब भी बसपा से ज्यादा सपा का पक्षधर है। कांग्रेस का ठोस जनाधार न होने के कारण मुस्लिम मतदाता उहापोह में है। बसपा लोकसभा चुनाव में ज्यादातर मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा कर उनका मत हासिल करने का प्रयास करेगी। वैसे स्थानीय स्तर पर कांग्रेसी नेताओं का कई लोकसभा क्षेत्रों में वर्ष 2014 से प्रभाव बढ़ा है। फिलहाल अमेठी में राहुल गांधी के लिए भाजपा की स्मृति ईरानी से कोई बड़ी चुनौती नही मिलनी है। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण रायबरेली से उनके चुनाव न लड़ने की आशंका जतायी जा रही है। ऐसे में रायबरेली सीट पर प्रियंका के अलावा अन्य कांग्रेस प्रत्याशी आता है तो लड़ाई दिलचस्प हो सकती है। यहां से भाजपा ने वित्तमंत्री अरूण जेटली को चुनाव प्रभारी बनाया है। जेटली की सांसद निधि भी अब रायबरेली क्षेत्र के विकास पर खर्च होगी। जाहिर है भाजपा रायबरेली से जेटली के ही किसी प्रिय को चुनाव लड़ाने की तैयारी कर रही है।
बसपा की चुनौती -- बसपा की स्थिति का भी आंकलन गठबंधन पर ही आधारित है। दलित और मुस्लिम बोट बैंक के अलावा बसपा से अन्य वर्ग का जुड़ाव नही हुआ है। इसके बाद भाजपा ने जिस प्रकार अतिदलित एवं अतिपिछड़े में अपनी पैठ बढ़ायी है, उससे बसपा की परेशानियां बढ़ी है। इसके बाद भी हर लोकसभा में बसपा के जाटव/चमार वोट बैंक अब भी लामबंद है। इसमें अन्य वर्गो का जुड़ाव होने पर बसपा की स्थिति संभल सकती है। बसपा सुप्रीमों मायावती के अम्बेडकरनगर अथवा बिजनौर से चुनाव लड़ने की चर्चा चल रही है। वैसे अखिलेश की ही तरह मायावती को भी लोकसभा की सीट जीतना कठिन चुनौती होगी। कांग्रेस और बसपा को पश्चिम में अपनी स्थिति में सुधार के लिए लोकदल को भी साथ मिलाना होगा। वैसे लोकदल के अजित सिंह और उनके बेटे जयन्त चौधरी भी राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है।
लखनऊ, (यूरीड मीडिया)। प्रदेश के सबसे बड़ी सत्ता के यादवी परिवार में पिछले विधानसभा चुनाव से पहले उभरे विवाद ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सरकार से दूर कर दिया तो अब लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट के साथ ही शुरू हुए घमासान ने एक फिर भतीजे को चक्रब्यूह में फंसा दिया है। महाभारत के युद्ध में भी चर्चाओं ने ही भतीजे अभिमन्यू को चक्रब्यूह में घेरकर मौत की नींद सुला दिया तो इस बार भी दो
चचाओं (चचा शिवपाल - चचीया ससुर अमर सिंह ) ने अखिलेश को घेरने के लिए ताना-बाना तैयार कर दिया है। लोकसभा चुनाव में कहां अखिलेश विपक्षी महागठबंधन का नया राजनीतिक समीकरण करने की तैयारी में लगे थे कि चचाओं ने घर में ही घेरकर राजनीतिक अस्तित्व के लिए ही जूझने का संकट खड़ा कर दिया है।
14th September, 2018