राजेन्द्र द्विवेदी- 2027 विधानसभा चुनाव अब तक के चुनाव से अलग होगा। जैसे राजनीतिक हालात दिखाई दे रहे हैं ऐसा लगता है कि 1993 के बाद 2027 में जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण के साथ दो चेहरों के बीच सीधा मुकाबला होगा। एक का नेतृत्व पीडीए के नारे के साथ अखिलेश यादव और दूसरी तरफ 80 बनाम 20 के नारे के साथ योगी का चेहरा होगा और मुद्दे गौण हो जायेंगे। 1993 एक ऐसा चुनाव था जो जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण है क्योंकि 6 दिसंबर 1992 में अयोध्या की घटना के बाद भाजपा की उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह के साथ चार सरकारें बर्खास्त की गयी थी, जिसके कारण पूरे देश में हिन्दुत्व का उबाल था। जिसे धरती पुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव और दलितों के मसीहा के रूप में जाने-जाने वाले कांशीराम ने मिलकर दलित पिछड़ें गठजोड़ के साथ एक ऐसा जातीय समीकरण तैयार किया जिसने धार्मिक उन्माद को जातीय समीकरण से ऐसी चुनौती दिया कि लड़ाई बराबर पर छूटी। भाजपा को 177 और सपा(109) बसपा(67) को 176 सीटें मिली। मत प्रतिशत में अंतर जरूर था। भाजपा का 33% और सपा(18%) बसपा(11%) को 29% मत मिले थे। इस चुनाव में कांग्रेस को भी 15% मत और 28 सीटें मिली थी। यह माना जा रहा है कि आजादी के बाद 1993 का विधानसभा चुनाव जातीय एवं धार्मिक ध्रुवीकरण का चुनाव रहा है।
2027 में चेहरे अलग-अलग हैं लेकिन स्थितियां जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की तरफ ही इशारा कर रही हैं। पीडीए के नाम पर दलित पिछड़ें और अल्पसंख्यक को एकजुट करके अखिलेश यादव भाजपा के हिंदुत्व का ब्रांड बन चुके योगी आदित्यनाथ को चुनौती दे रहे हैं। जबकि भाजपा योगी के हिंदुत्व चेहरे के साथ छोटे दलों के जातीय समीकरण जिनमें ओमप्रकाश राजभर, अनुप्रिया पटेल, संजय निषाद, जयंत चौधरी को एकजुट कर तीसरी बार जीतने की रणनीति पर चल रही है। इन दोनों के बीच एक ऐसे समीकरण की कमी है जो सपा भाजपा दोनों के लिए अहम है। अगर सूक्ष्मता से चुनाव परिणाम का विश्लेषण करें तो यह दोनों गठबंधन अधूरा लगा रहा है क्योंकि पीडीए में जबतक सामान्य वर्ग नहीं जुड़ेगा और भाजपा के हिंदुत्व में अतिपिछड़ा का पिछले चुनाव जैसा समर्थन नहीं होगा तो छोटे दल बड़े दलों के गठबंधन के साथ बहुमत का समीकरण बिगाड़ सकते हैं ? परसेप्शन बन गया है कि अखिलेश यादव का सियासत सवर्ण विरोधी है और योगी एक जाति विशेष को विशेष महत्व देकर अतिपिछड़े और भाजपा के दूसरे कोर वोटर को नाराज कर दिया है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और बसपा नेता मायावती दोनों का भी 2027 में बहुत अहम रोल होगा। अखिलेश की सियासी जमीन को राहुल के चेहरे के साथ काफी मजबूती मिलेगी। अगर कांग्रेस-सपा साथ नहीं हुई तो पीडीए की ताकत कमजोर पड़ सकती है। भाजपा में योगी के हिन्दुत्व के साथ अगर अतिपिछड़े वर्ग के लोकप्रिय नेता केशव मौर्य की उपेक्षा जैसा परसेप्शन बना हुआ है अगर ऐसा ही रहा, तो भाजपा को भी निश्चित नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि केवल जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण से किसी को बहुमत नहीं मिल सकता है। यह 1993 का सबसे बड़ा उदाहरण है। मायावती किस तरह और किस समीकरण पर चुनाव लड़ती हैं यह भी अहम है। अगर 1996 की तरह बसपा और कांग्रेस का गठबंधन हुआ तो 2027 के चुनाव में एक नया ध्रुवीकरण बन सकता है और चुनाव काफी रोचक त्रिकोणात्मक भी बन सकता है। सियासत है, और अभी समय भी है। 2027 तक क्या स्थिति होगी यह आज के हालात पर चुनाव परिणाम का निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, लेकिन वर्तमान सियासी हालात पर भविष्य की संभावनाएं क्या क्या हो सकती है उस पर राजनीतिक विश्लेषण होता है।
2027 में चेहरे अलग-अलग हैं लेकिन स्थितियां जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की तरफ ही इशारा कर रही हैं। पीडीए के नाम पर दलित पिछड़ें और अल्पसंख्यक को एकजुट करके अखिलेश यादव भाजपा के हिंदुत्व का ब्रांड बन चुके योगी आदित्यनाथ को चुनौती दे रहे हैं। जबकि भाजपा योगी के हिंदुत्व चेहरे के साथ छोटे दलों के जातीय समीकरण जिनमें ओमप्रकाश राजभर, अनुप्रिया पटेल, संजय निषाद, जयंत चौधरी को एकजुट कर तीसरी बार जीतने की रणनीति पर चल रही है। इन दोनों के बीच एक ऐसे समीकरण की कमी है जो सपा भाजपा दोनों के लिए अहम है। अगर सूक्ष्मता से चुनाव परिणाम का विश्लेषण करें तो यह दोनों गठबंधन अधूरा लगा रहा है क्योंकि पीडीए में जबतक सामान्य वर्ग नहीं जुड़ेगा और भाजपा के हिंदुत्व में अतिपिछड़ा का पिछले चुनाव जैसा समर्थन नहीं होगा तो छोटे दल बड़े दलों के गठबंधन के साथ बहुमत का समीकरण बिगाड़ सकते हैं ? परसेप्शन बन गया है कि अखिलेश यादव का सियासत सवर्ण विरोधी है और योगी एक जाति विशेष को विशेष महत्व देकर अतिपिछड़े और भाजपा के दूसरे कोर वोटर को नाराज कर दिया है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और बसपा नेता मायावती दोनों का भी 2027 में बहुत अहम रोल होगा। अखिलेश की सियासी जमीन को राहुल के चेहरे के साथ काफी मजबूती मिलेगी। अगर कांग्रेस-सपा साथ नहीं हुई तो पीडीए की ताकत कमजोर पड़ सकती है। भाजपा में योगी के हिन्दुत्व के साथ अगर अतिपिछड़े वर्ग के लोकप्रिय नेता केशव मौर्य की उपेक्षा जैसा परसेप्शन बना हुआ है अगर ऐसा ही रहा, तो भाजपा को भी निश्चित नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि केवल जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण से किसी को बहुमत नहीं मिल सकता है। यह 1993 का सबसे बड़ा उदाहरण है। मायावती किस तरह और किस समीकरण पर चुनाव लड़ती हैं यह भी अहम है। अगर 1996 की तरह बसपा और कांग्रेस का गठबंधन हुआ तो 2027 के चुनाव में एक नया ध्रुवीकरण बन सकता है और चुनाव काफी रोचक त्रिकोणात्मक भी बन सकता है। सियासत है, और अभी समय भी है। 2027 तक क्या स्थिति होगी यह आज के हालात पर चुनाव परिणाम का निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, लेकिन वर्तमान सियासी हालात पर भविष्य की संभावनाएं क्या क्या हो सकती है उस पर राजनीतिक विश्लेषण होता है।
28th October, 2025
