
यूरीड मीडिया- झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और दिशोम गुरु के नाम से मशहूर शिबू सोरेन नहीं रहे। वे 81 साल के थे। बीते डेढ़ महीने से वे दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल में एडमिट थे। उन्हें ब्रेन स्टोक हुआ था और उनके शरीर के बाएं हिस्से में पैरालिसिस हो गया था।
आदिवासियों के हक और अलग झारखंड के लिए आंदोलन किया, फिर राजनीति की। शिबू सोरेन के मुख्यमंत्री बनने की कहानी और उनसे जुड़े किस्से...
शिबू सोरेन के बेटे और झारखंड के CM हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया 'X' पर पोस्ट किया, 'आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं। आज मैं शून्य हो गया हूँ...।'
शुरुआतः पिता की हत्या हुई तो पढ़ाई छोड़ आंदोलन में कूदे, दिशोम गुरू कहलाए
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को गोला प्रखंड के नेमरा गांव में हुआ था। तब झारखंड अलग नहीं हुआ था। नेमरा बिहार के हजारीबाग जिले में आता था। चार भाई-बहनों में शिबू दूसरे नंबर पर थे। उनके पिता सोबरन सोरेन गांधीवादी टीचर थे। उन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लिया था।
शिबू सोरेन के बचपन में दो नाम थे- शिवलाल और शिवचरण। हाईस्कूल में शिबू को हॉस्टल जाना पड़ा। 27 नवंबर 1957 को हॉस्टल में खबर मिली कि उनके पिता की हत्या कर दी गई है। शिबू के पिता महाजनों के खिलाफ आदिवासियों को जागरूक करते थे।
पिता की हत्या के बाद 13 वर्षीय शिबू का मन पढ़ाई में नहीं लगा। वो जानते थे कि उनके पिता को महाजनों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए जान गंवानी पड़ी।
ये वो दौर था जब गोला और इसके आसपास के क्षेत्रों में सूदखोरों का आतंक था। सूदखोर पहले ग्रामीणों को कर्ज देते थे, फिर 500% तक सूद वसूलते थे। भुगतान न करने पर जमीन पर कब्जा कर लेते। ग्रामीणों के अपने ही खेत में धान उपजाने के बाद उसका आधे से ज्यादा हिस्सा महाजन जबरन ले जाते थे।
शिबू इस बात को समझ चुके थे कि पढ़ाई से ज्यादा जरूरी है महाजनों के खिलाफ आदिवासी समाज को इकट्ठा करना। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ काम करना शुरू किया। शिबू को रास्ते से हटाने के लिए महाजनों ने भाड़े के लोग जुटाए। उन दिनों आदिवासियों को जागरूक करने के लिए शिबू सोरेन बाइक से गांव-गांव जाते थे।
एक दिन शिबू बराकर नदी के पास से गुजर रहे थे तभी उन्हें महाजनों के गुंडों ने घेर लिया। बारिश का सीजन था। बराकर नदी उफान पर थी। शिबू समझ गए कि अब बचना मुश्किल है। उन्होंने आव देखा न ताव, अपनी रफ्तार बढ़ाई और बाइक समेत नदी में छलांग लगा दी। सभी को लगा उनका मरना तय है, लेकिन थोड़ी देर बाद शिबू तैरते हुए नदी के दूसरे छोर पहुंच गए। लोगों ने इसे दैवीय चमत्कार माना। आदिवासियों ने शिबू को ‘दिशोम गुरु’ कहना शुरू कर दिया। संथाली में दिशोम गुरु का अर्थ होता है देश का गुरु।
सूदखोरों का धान जबरन काट लेते थे शिबू सोरेन
उन दिनों गोला-मूरी रोड पर गोमती नदी पर पुल बन रहा था। गोला के डभातू निवासी विशु महतो को महाजन के लोग जमीन हड़पने के लिए तंग कर रहे थे। शिबू ने तय किया कि वे विशु की मदद करेंगे।
शिबू ने महाजन के गुंडों से कहा कि विशु काे परेशान नहीं करें वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा। पहली बार किसी ने गुंडों को धमकी दी थी। वो दूसरी बार विशु को परेशान करने नहीं आए। इससे खुद शिबू सोरेन का मनोबल बढ़ा। लोग शिबू सोरेन के साथ होने लगे। नई उम्र के इस लड़के में उन्हें मसीहा नजर आ रहा था, जो सूदखोरों से मुक्ति दिला सकता था।
शिबू का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। साथियों ने कहा कि अगर राजनीति में हमारा व्यक्ति होगा तो हमारी बात सुनी जाएगी। तय हुआ कि शिबू सोरेन चुनाव लड़ेंगे। शिबू ने बरलंगा पंचायत के मुखिया के चुनाव के लिए पर्चा भरा। कहा जाता है अफसरों की मिलीभगत से शिबू को चुनाव हराया गया था।
आदिवासी अपने ही खेतों में मजदूरों की तरह काम कर रहे थे। शिबू ने लोगों से कहा कि तीर-धनुष उठाओ और जबरन धान काटो। हम देखेंगे कौन रोकेगा। शिबू सोरेन के इस आह्वान पर लोगों ने उनका साथ देना शुरू किया। शिबू सोरेन ने समर्थकों के बूते पर 'धान काटो’ अभियान शुरू कर दिया।
बरलंगा पंचायत में जिन महाजनों ने आदिवासियों की जमीन को हड़प लिया था और वहां खेती कर रहे थे, शिबू उनके खेत से जबरन धान काट लिया करते थे। जिस खेत में धान काटना होता था, उसके चारों ओर तीर-धनुष लिए युवक तैनात होते थे। महिलाएं धान काटती थीं। उस फसल को गांववालों के बीच बांट दिया जाता था। इससे शिबू सोरेन की लोकप्रियता बढ़ने लगी।
एक बैठक में बन गया झारखंड मुक्ति मोर्चा
विनोद बाबू CPI छोड़ चुके थे। वे अब शिबू के साथ थे। वे समझ रहे थे कि आदिवासियों को एक राजनीतिक पार्टी की जरूरत है। ऐसे ही एक दिन 4 फरवरी, 1972 को धनबाद में शिबू सोरेन और साथियों ने विनोद बाबू के धनबाद स्थित आवास पर बैठक की।
इसमें शिबू सोरेन, विनोद बाबू, एके राय, प्रेम प्रकाश हेंत्रम, कतरास के पूर्व राजा पूर्णेदु नारायण सिंह, शिवा महतो, जादू महतो, शक्तिनाथ महतो, राज किशोर महतो, गोविंद महतो आदि मौजूद थे।
बैठक में सोनोत संथाल समाज और शिवाजी समाज का विलय कर नया संगठन बनाने का फैसला लिया गया। बैठक में नए संगठन के नाम पर चर्चा हुई। कई नाम सुझाए गए। नए संगठन का नाम “झारखंड मुक्ति मोर्चा' (JMM) रखने का निर्णय किया गया। केंद्रीय समिति का गठन किया गया। सभी की सहमति से विनोद बिहारी महतो को अध्यक्ष, शिबू सोरेन को महासचिव और पूर्णेंदु नारायण सिंह को उपाध्यक्ष बनाया गया।
1973 में JMM की स्थापना रैली के बाद मोर्चा काफी सक्रिय और फेमस हो चुका था। सूदखोरों का धान जबरदस्ती काटने के बाद शिबू के खिलाफ कई केस दर्ज हाे चुके थे। पुलिस सरगर्मी से उनकी तलाश कर रही थी। कई जगह छापे मारे जा रहे थे।
4 फरवरी को JMM का स्थापना दिवस आ रहा था। अध्यक्ष विनोद बिहारी जेल में थे। सबको लगा था कि इतने केसों के कारण शिबू भी नहीं आएंगे। इसके बावजूद JMM का स्थापना दिवस मनाना तय हुआ। धनबाद में कार्यक्रम स्थल पर भारी भीड़ जमा हो गई।
शिबू को गिरफ्तार करने के लिए चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात की गई। थोड़ी देर में पुलिस को चकमा देकर शिबू सोरेन मंच पर प्रकट हुए। हजारों लोग उन्हें घेरे हुए थे। पुलिस मंच तक नहीं पहुंच पा रही थी। पुलिस को लगा कि भाषण के बाद हम शिबू को गिरफ्तार कर लेंगे। पुलिस शिबू को खोजती रही, लेकिन वो भाषण के बाद गायब हो गए।
जब DC ने कहा- सरेंडर कर दीजिए, नहीं तो गोली खाएंगे
केबी सक्सेना धनबाद के नए उपायुक्त बनकर आए थे। उन्हें शिबू सोरेन को पकड़ने की जिम्मेदारी दी गई। शुरुआत में सक्सेना ने शिबू से निपटने के लिए एक सख्त प्लान बनाया। जब उन्हें पता चला कि शिबू आदिवासियों के हित में काम कर रहे हैं, तब उन्होंने शिबू को लेकर अपना नजरिया बदल लिया।
सक्सेना बेहद निडर व्यक्ति थे। एक बार वे किसी तरह जंगल के भीतर शिबू के ठिकाने तक पहुंच गए। शिबू की सुरक्षा के लिए सैकड़ों आदिवासी तीर-कमान लेकर पहरा दे रहे थे। शिबू के पास आकर सक्सेना ने कहा- मैं धनबाद का नया DC हूं, आपसे मिलने आया हूं। शिबू ने सक्सेना को अपने पास खाट पर बैठाया।
सक्सेना की पूरी आवभगत की गई। केबी सक्सेना ने शिबू सोरेन से कहा,
आपको देखकर एक बात पता चली कि आप आदिवासियों के मसीहा हैं, लेकिन आपकी लड़ाई का तरीका गलत है। जंगल में रहकर कब तक लड़ते रहेंगे। आप कानून के सामने सरेंडर कर दीजिए, वरना किसी दिन पुलिस की गोली के शिकार हो जाएंगे।
अगली बार केबी सक्सेना के साथ, SP और कुछ और अफसर भी आए। पहरा दे रहे आदिवासियों को निर्देश थे कि गिरफ्तारी होती है तो हमला करना, वरना नहीं। सक्सेना पहुंचे, लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं हुई। वहां एक बड़ी सभा हुई, जिसमें 25 हजार आदिवासियों ने भाग लिया। सक्सेना ने कहा कि शिबू आदिवासियों के मसीहा हैं। ये बात पूरे राज्य में फैल गई। सूदखोर महाजनों ने इसका विरोध किया। समर्पण से पहले ही सक्सेना का तबादला हो गया। हालांकि, जाने से पहले वो बिहार के CM जगन्नाथ मिश्र और PM इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिख चुके थे।
नए DC साहब आए। उनका भी शिबू से संपर्क जारी रहा। एक दिन शिबू को थाने आने के लिए कहा गया। ये वो समय था जब कोई ये हिम्मत नहीं कर सकता था। शिबू काे बताया गया कि थाने से ही CM साहब आपसे बात करेंगे। इसके बाद आप पर लगे केसों को हटाया जाएगा।
बात सितंबर 1975 की है। एक दिन DC शिबू के ठिकाने पर पहुंचे। उन्हें बताया गया कि शिबू को कुछ दिन जेल जाना पड़ेगा, ताकि चीजों को ठीक किया जा सके। प्रशासन ने समर्थकों को भरोसा दिया कि कुछ गलत नहीं होगा। धीरे-धीरे सब केस खत्म कर देंगे, लेकिन पहले शिबू को जेल जाना पड़ेगा। इस तरह शिबू सोरेन ने सरेंडर किया। कई दिन शिबू और उनके साथी धनबाद जेल में रहे। DC खुद उनकी सुविधाओं का ध्यान रख रहे थे। एक दिन शिबू को बोकारो ले जाया गया। वहां शिबू और मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के बीच चर्चा हुई। CM ने शिबू से कहा कि धीरे-धीरे केस हट रहे हैं। आप जमानत के लिए आवेदन कीजिए, प्रशासन विरोध नहीं करेगा। आप जेल से छूट जाएंगे। इसके कुछ दिन बाद शिबू और उनके साथी जेल से छूट गए।
झारखंड को अलग करो, नहीं तो कोयला नहीं जाने देंगे
जुलाई 2000 में संसद का मानसून सत्र चल रहा था। शिबू सोरेन चाहते थे कि सरकार इसी सेशन में झारखंड बिल सदन में लाए। शिबू ने दबाव बनाने के लिए दिल्ली में एक बड़ी रैली और प्रदर्शन का निर्णय लिया। झारखंड से सैकड़ों लोग और सभी दलों के बड़े नेता दिल्ली पहुंच गए।
25 जुलाई को शिबू के दिल्ली स्थित आवास से विरोध रैली निकाली गई। रैली जंतर-मंतर से होते हए संसद भवन की तरफ जाने लगी तो पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों ने रोक लिया। जहां रैली को रोका गया, वहीं धरना शुरू हो गया और शिबू सोरेन ने कहा कि अगर झारखंड बिल नहीं आया तो झारखंड से देशभर में जो कोयला और अन्य खनिज जाता है, उसकी सप्लाई नहीं होने दी जाएगी।
केंद्र की अटल बिहारी सरकार के हाथ-पांव फूल गए। दोपहर बाद संसद में झारखंड राज्य के गठन का बिल गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने पेश किया। झारखंड बिल आते ही ओडिशा के सांसदों ने सबसे पहले विरोध दर्ज कराया, जबकि बीजू जनता दल भी झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरह NDA का सदस्य था।
BJD के सांसदों ने कहा कि सरायकेला-खरसांवा को ओडिशा को दे दिया जाए। सांसदों को मनाने की कोशिश की गई, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थे। इधर शिबू सोरेन भी अड़े हुए थे। उन्होंने साफ कह दिया कि अगर आप सरायकेला-खरसांवा का राग अलापना बंद नहीं करेंगे, तो हम भी ओडिशा के मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ को झारखंड में शामिल करने का मुद्दा उठाएंगे।
आखिरकार 2 अगस्त को बिल पारित हुआ और इस तरह झारखंड का जन्म हुआ।
केंद्र में मंत्री रहते वारंट निकला और भगोड़ा घोषित किया गया
महाजनों के खिलाफ किए गए आंदोलन के दौरान दर्ज केस लगभग खत्म हो गए थे, लेकिन एक केस 29 साल से गुरुजी का पीछा कर रहा था। जुलाई, 2004 में चिरुडीह का मामला सामने आया और गुरुजी को फरार घोषित कर दिया गया। उस समय वे UPA सरकार में कोयला मंत्री थे।
23 जनवरी 1975 को चिरुडीह में आदिवासियों और महाजनों व समर्थकों के बीच संघर्ष हुआ था। इसमें दस से ज्यादा लोग मारे गए थे। आरोप था कि उन्हें शिबू सोरेन ने भड़काया। मामला कोर्ट में चल रहा था। तब जामताड़ा की एक अदालत ने इसी मामले में शिबू को 6 सितंबर 1986 को कोर्ट में समर्पण करने का आदेश दिया था।
अचानक ये मामला 2004 में सामने आया। राज्य में BJP की सरकार थी और अर्जुन मुंडा CM थे। शिबू ने काउंटर किया, 'मैं सालों से विधायक, सांसद और मंत्री हूं तो फरार कैसे हो सकता हूं। ये जानबूझकर राजनीति के कारण खोद कर निकाला गया मामला है।'
मामला संसद में उठा। विपक्ष में बैठी भाजपा ने शिबू सोरेन का इस्तीफा मांगा। आखिरकार परिस्थितियां बिगड़ने लगीं और गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने संसद में बयान दिया कि जिस वारंट की बात हो रही है, अदालत 2003 में उसे वापस ले चुकी है। फिर भी मामला शांत नहीं हो रहा था।
1986 में जो वारंट जारी किया गया, वो तामील नहीं हुआ। इस वजह से 17 जुलाई 2004 को निचली अदालत ने फिर से वारंट जारी करने का आदेश दिया। अब UPA सरकार इस विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी। अगले दिन PM मनमोहन सिंह और शिबू सोरेन की मुलाकात हुई और PM ने कहा कि आप इस्तीफा देकर समर्पण कीजिए।
20 जुलाई को जामताड़ा कोर्ट ने गुरुजी को भगोड़ा घोषित कर दिया। अब शिबू समझ चुके थे कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके ही मानेगी। संसद में BJP खूब हंगामा कर रही थी कि जो व्यक्ति कल तक PM से मिल रहा था, वो गिरफ्तार क्यों नहीं हो पा रहा है। गुरुजी ने बेटे हेमंत सोरेन के मार्फत इस्तीफा फैक्स करवाया। इसके बाद हाईकोर्ट में याचिका लगवाई और भूमिगत हो गए।
हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी वारंट स्थगित कर दिया, लेकिन शर्त रखी कि गुरुजी को सरेंडर करना होगा। अगर वे सरेंडर नहीं करेंगे तो निचली अदालत फैसला लेने के लिए स्वतंत्र है। इसके बाद गुरुजी ने एक जनसभा की और निचली अदालत में सरेंडर किया। शिबू एक महीने जेल में रहे। इसके बाद उन्हें हाईकोर्ट ने जमानत दे दी। 6 मार्च 2008 को निचली अदालत ने चिरुडीड मामले में उन्हें बरी कर दिया।
जब पहली बार CM बने, दस दिन में गिर गई सरकार
शिबू सोरेन 2 मार्च 2005 को पहली बार CM बने, लेकिन बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण दस दिन में ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 27 अगस्त 2008 को शिबू सोरेन दूसरी बार झारखंड के CM बने। इस बार वे विधायक नहीं थे। इस कारण छह महीने में उन्हें चुनाव जीतकर विधानसभा का सदस्य बनना था।
पांच महीने बाद 2009 में उपचुनाव हुआ। शिबू को एक सुरक्षित सीट की जरूरत थी, लेकिन कोई भी उनके लिए सीट छोड़ने को तैयार नहीं था। जो विधायक सीट छोड़ने को तैयार थे, वो मुश्किल सीट थी। तमाड़ विधानसभा में उपचुनाव का ऐलान हुआ। UPA ने गठबंधन की ओर से शिबू का नाम रखा, लेकिन शिबू वहां से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे।
शिबू जानते थे कि तमाड़ मुंडा बहुल है। वहां शिबू काे मुश्किल हो सकती है। मजबूरी में शिबू सोरेन ने पर्चा दाखिल कर दिया। विरोधी के रूप में झारखंड पार्टी के राजा पीटर मैदान में थे। 8 जनवरी 2009 को परिणाम आया तो CM शिबू सोरेन करीब 9 हजार वोट से उपचुनाव हार गए थे। आखिर में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
3 बार के कार्यकाल में सिर्फ 10 महीने सरकार चलाई
तीन बार के कार्यकाल में शिबू सोरेन को 10 महीना 10 दिन ही राज्य की कमान संभालने का मौका मिला। शिबू सोरेन पहली बार 2 मार्च 2005 को झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। वे 2 मार्च से 12 मार्च यानी कि सिर्फ 10 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे।
इसके बाद शिबू सोरेन दूसरी बार 28 अगस्त 2008 को झारखंड के मुख्यमंत्री बने। इस बार उन्हें पांच महीने तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। उन्होंने 18 जनवरी 2009 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
फिर तीसरी बार 30 दिसंबर 2009 को शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने। इस बार फिर उन्हें पांच महीने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। उन्होंने 31 मई 2009 को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।