दिनेश दुबे, भारत वासियों के दिल में इस समय एक ऐसा सवाल कौंध रहा है जिसका समय रहते यदि उत्तर न मिला तो भाजपा के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा कसौटी पर कस जायेगी ! क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही गुजरात का मुख्यमंत्री रहते समय वर्ष 2011 में तत्कालीन केंद्र सरकार को किसानों की फसल पर एमएसपी ( न्यूनतम समर्थन मूल्य ) लागू करने के लिये ड्राप्ट तैयार करके भेजा था। चूंकि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कृषि कानून वापस लेने की घोषणा कर देने के बाद भी आंदोलन पर अड़े किसान नेताओं का यह कहकर प्रधानमंत्री पर अविश्वास जता देना कि 'प्रधानमंत्री की इस घोषणा के पीछे कोई साज़िश हो सकती है' अपने आप में बहुत बड़ी बात है ? मेरे विचार से इस बात को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए ! क्योंकि ये बात देश के प्रधानमंत्री के पद से जुड़ी हुई है । किसान नेताओं का यह अविश्वास नरेंद्र मोदी के बजाय देश के प्रधानमंत्री के प्रति है ।
पूरा संसार जान चुका है कि बीते वर्ष जून के महीने में जब पूरा देश वैश्विक महामारी कोविड -19 के कहर से जूझ रहा था और देश भर में त्राहि-त्राहि मची हुई थी । तब हमारे देश की सर्वोच्च पंचायत लोकसभा में सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर बिल प्रस्तुत करके तीन नए कृषि कानून बनाये थे । देश की दिशा व दशा ही नहीं बल्कि असंख्य लोगों का भविष्य तय करने वाले तीनों कृषि कानूनों पर सरकार ने संसद में आम सहमति भी नहीं बनाई थी । यही नहीं इस दौरान सरकार ने लोक तांत्रिक मर्यादा लांघकर बहुमत के अंहकार में पूरे विपक्ष को ही नहीं बल्कि सरकार में शामिल अपने सबसे पुराने व विश्वसनीय सहयोगी साथी 'शिरोमणि अकाली दल' के कोटे की केंद्रीय राज्यमंत्री हरसिमरत कौर बादल को भी तिरस्कृत कर दिया था। क्योंकि सरकार द्वारा बिल प्रस्तुत करते समय विपक्ष और देश के किसान नेताओं का मत था कि सरकार ने इन नए कृषि कानूनों के जरिये सिर्फ और सिर्फ कुछ पूंजीपतियों का हित साधने की कोशिश की है । नए कानूनों में सरकार ने छोटे और मंझोले किसानों की उपज के लिए अति आवश्यक हो चुके 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' (एमएसपी ) को कानूनी दायरे में लिया ही नहीं था । इस बात को लेकर सरकार के सहयोगी किसान संगठन 'भारतीय किसान संघ' ने भी शुरुआती दौर में विरोध जताने की कोशिश की थी, लेकिन सरकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दबाव में भारतीय किसान संघ ने अपने पैर पीछे खींच लिए थे ।
सरकार की मंशा और अपने अहित को भांपकर देश भर के किसान संगठनों ने एकजुट होकर जब सरकार के खिलाफ़ आंदोलन शुरू किया तो सरकार ने किसानों के आंदोलन को खत्म करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए । फलस्वरूप देश भर में किसानों के साथ ही आम लोगों में सरकार के खिलाफ़ आक्रोश फैलता गया ।इस बीच सैकड़ों किसानों ने अपनी जानें गवांकर आंदोलन जारी रखा । भारतीय अन्नदाताओं की आवाज पूरे विश्व में गूंजी और उन्हें वैश्विक समर्थन भी मिला । भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने दल की सभी राज्य सरकारों की पूरी ताक़त लगाकर विश्व की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी होने के दम्भ में गांव-गांव चौपालें लगाकर किसानों को न सिर्फ समझाने की कोशिश की बल्कि आंदोलित किसानों को भला-बुरा भी कहा, जिससे सरकार और सत्तापक्ष के खिलाफ गुस्सा बढ़ता गया ।
अब इसे सत्ता पर काबिज़ रहने की छटपटाहट कहा जाए या फिर कुछ और ? कि देश के उसी प्रधानमंत्री ने सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव के जन्मोत्सव पर तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान कर दिया जिस प्रधानमंत्री ने आंदोलन में शामिल सिखों को खुद ही आतंकवादी व खालिस्तानी करार दिया था । चूंकि सरकार के सहयोगी किसान संगठन ने शुरुआत में किसान आंदोलन से किनारा तो कर लिया था लेकिन उसने तीनों कृषि कानूनों पर पूर्ण रूप से खुलकर सहमति कभी नहीं जताई थी । इसी के चलते अगस्त के तीसरे हफ्ते में भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय संगठन मंत्री दिनेश कुलकर्णी ने ऐलान करके किसानों को उनकी उपज के 'हितकारी मूल्य' दिए जाने के लिए आठ सितंबर को पूरे देश में राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी करवाया था। जिसमें देश भर के प्रत्येक जिला मुख्यालय पर ज्ञापन देने का कार्यक्रम रखा गया । इस आंदोलन में भारतीय किसान संघ का मुख्य रूप से यही कहना था कि केंद्र सरकार की ओर से लाए गए नए कृषि कानूनों का देश के किसानों का एक बड़ा वर्ग विरोध कर रहा है। जिसके चलते लंबे समय से किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे हुए हैं। भारतीय किसान संघ ने इन कानूनों में सुधार की गुंजाइश जताते हुए कहा था कि तीन नए कृषि कानूनों में एमएसपी या कृषि उत्पादों के लिए हितकारी मूल्य सुनिश्चित करने के बारे में कोई प्रावधान ही नहीं है। इसलिए सरकार या तो नया विधेयक लेकर आए या पिछले साल लाए गए कृषि-विपणन कानूनों में बदलाव करे और मुख्य कृषि उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के भुगतान के लिए नया प्रावधान भी जोड़े।
ऐसे में जब आंदोलित किसानों ने प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कृषि कानून वापस लेने की घोषणा पर अविश्वास जताते हुए कागज़ हांथ में न आने और एमएसपी पर कानून न बनाने तक आंदोलन जारी रखने की बात कह दी है । तो इस लिहाज से अब यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पद की गरिमा बचाने के लिए उन वक्तव्यों पर गौर करना ही होगा जो उनके द्वारा समय- समय पर दिए जाते रहे हैं ! चूंकि किसानों के साथ ही पूरे देश ने सुना है कि प्रधानमंत्री ने एक बार नहीं बल्कि कई बार कहा है कि..एमएसपी थी..एमएसपी है...और एमएसपी जारी रहेगी...!! इसलिए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को अगर वास्तव में देश के किसानों की चिंता थी ..चिंता है ..और आगे भी चिंता रखना चाहते हैं ? तो उन्हें अब बिना किसी तरह की देरी किये आंदोलित किसानों पर दर्ज मुकदमों को वापस लेते हुए एमएसपी की गारंटी पर भी कानून बनाकर अपने राजनैतिक विपक्षियों को धूल चटा देनी चाहिए । कोई माने या न माने परन्तु मेरा मत है कि प्रधानमंत्री के इस क्रांतिकारी कदम से न सिर्फ देश के किसानों का भला होगा, बल्कि देश में मंहगाई पर भी नियंत्रण लगेगा जिससे पूरा देश खुशहाल हो जायेगा !
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
मो:- 9415147159
ईमेल : dinesh knk1@ gmail.com
पूरा संसार जान चुका है कि बीते वर्ष जून के महीने में जब पूरा देश वैश्विक महामारी कोविड -19 के कहर से जूझ रहा था और देश भर में त्राहि-त्राहि मची हुई थी । तब हमारे देश की सर्वोच्च पंचायत लोकसभा में सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर बिल प्रस्तुत करके तीन नए कृषि कानून बनाये थे । देश की दिशा व दशा ही नहीं बल्कि असंख्य लोगों का भविष्य तय करने वाले तीनों कृषि कानूनों पर सरकार ने संसद में आम सहमति भी नहीं बनाई थी । यही नहीं इस दौरान सरकार ने लोक तांत्रिक मर्यादा लांघकर बहुमत के अंहकार में पूरे विपक्ष को ही नहीं बल्कि सरकार में शामिल अपने सबसे पुराने व विश्वसनीय सहयोगी साथी 'शिरोमणि अकाली दल' के कोटे की केंद्रीय राज्यमंत्री हरसिमरत कौर बादल को भी तिरस्कृत कर दिया था। क्योंकि सरकार द्वारा बिल प्रस्तुत करते समय विपक्ष और देश के किसान नेताओं का मत था कि सरकार ने इन नए कृषि कानूनों के जरिये सिर्फ और सिर्फ कुछ पूंजीपतियों का हित साधने की कोशिश की है । नए कानूनों में सरकार ने छोटे और मंझोले किसानों की उपज के लिए अति आवश्यक हो चुके 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' (एमएसपी ) को कानूनी दायरे में लिया ही नहीं था । इस बात को लेकर सरकार के सहयोगी किसान संगठन 'भारतीय किसान संघ' ने भी शुरुआती दौर में विरोध जताने की कोशिश की थी, लेकिन सरकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दबाव में भारतीय किसान संघ ने अपने पैर पीछे खींच लिए थे ।
सरकार की मंशा और अपने अहित को भांपकर देश भर के किसान संगठनों ने एकजुट होकर जब सरकार के खिलाफ़ आंदोलन शुरू किया तो सरकार ने किसानों के आंदोलन को खत्म करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए । फलस्वरूप देश भर में किसानों के साथ ही आम लोगों में सरकार के खिलाफ़ आक्रोश फैलता गया ।इस बीच सैकड़ों किसानों ने अपनी जानें गवांकर आंदोलन जारी रखा । भारतीय अन्नदाताओं की आवाज पूरे विश्व में गूंजी और उन्हें वैश्विक समर्थन भी मिला । भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने दल की सभी राज्य सरकारों की पूरी ताक़त लगाकर विश्व की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी होने के दम्भ में गांव-गांव चौपालें लगाकर किसानों को न सिर्फ समझाने की कोशिश की बल्कि आंदोलित किसानों को भला-बुरा भी कहा, जिससे सरकार और सत्तापक्ष के खिलाफ गुस्सा बढ़ता गया ।
अब इसे सत्ता पर काबिज़ रहने की छटपटाहट कहा जाए या फिर कुछ और ? कि देश के उसी प्रधानमंत्री ने सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव के जन्मोत्सव पर तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान कर दिया जिस प्रधानमंत्री ने आंदोलन में शामिल सिखों को खुद ही आतंकवादी व खालिस्तानी करार दिया था । चूंकि सरकार के सहयोगी किसान संगठन ने शुरुआत में किसान आंदोलन से किनारा तो कर लिया था लेकिन उसने तीनों कृषि कानूनों पर पूर्ण रूप से खुलकर सहमति कभी नहीं जताई थी । इसी के चलते अगस्त के तीसरे हफ्ते में भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय संगठन मंत्री दिनेश कुलकर्णी ने ऐलान करके किसानों को उनकी उपज के 'हितकारी मूल्य' दिए जाने के लिए आठ सितंबर को पूरे देश में राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी करवाया था। जिसमें देश भर के प्रत्येक जिला मुख्यालय पर ज्ञापन देने का कार्यक्रम रखा गया । इस आंदोलन में भारतीय किसान संघ का मुख्य रूप से यही कहना था कि केंद्र सरकार की ओर से लाए गए नए कृषि कानूनों का देश के किसानों का एक बड़ा वर्ग विरोध कर रहा है। जिसके चलते लंबे समय से किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे हुए हैं। भारतीय किसान संघ ने इन कानूनों में सुधार की गुंजाइश जताते हुए कहा था कि तीन नए कृषि कानूनों में एमएसपी या कृषि उत्पादों के लिए हितकारी मूल्य सुनिश्चित करने के बारे में कोई प्रावधान ही नहीं है। इसलिए सरकार या तो नया विधेयक लेकर आए या पिछले साल लाए गए कृषि-विपणन कानूनों में बदलाव करे और मुख्य कृषि उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के भुगतान के लिए नया प्रावधान भी जोड़े।
ऐसे में जब आंदोलित किसानों ने प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कृषि कानून वापस लेने की घोषणा पर अविश्वास जताते हुए कागज़ हांथ में न आने और एमएसपी पर कानून न बनाने तक आंदोलन जारी रखने की बात कह दी है । तो इस लिहाज से अब यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पद की गरिमा बचाने के लिए उन वक्तव्यों पर गौर करना ही होगा जो उनके द्वारा समय- समय पर दिए जाते रहे हैं ! चूंकि किसानों के साथ ही पूरे देश ने सुना है कि प्रधानमंत्री ने एक बार नहीं बल्कि कई बार कहा है कि..एमएसपी थी..एमएसपी है...और एमएसपी जारी रहेगी...!! इसलिए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को अगर वास्तव में देश के किसानों की चिंता थी ..चिंता है ..और आगे भी चिंता रखना चाहते हैं ? तो उन्हें अब बिना किसी तरह की देरी किये आंदोलित किसानों पर दर्ज मुकदमों को वापस लेते हुए एमएसपी की गारंटी पर भी कानून बनाकर अपने राजनैतिक विपक्षियों को धूल चटा देनी चाहिए । कोई माने या न माने परन्तु मेरा मत है कि प्रधानमंत्री के इस क्रांतिकारी कदम से न सिर्फ देश के किसानों का भला होगा, बल्कि देश में मंहगाई पर भी नियंत्रण लगेगा जिससे पूरा देश खुशहाल हो जायेगा !
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
मो:- 9415147159
ईमेल : dinesh knk1@ gmail.com
22nd November, 2021