दिनेश दुबे, यूरीड मीडिया- सुधारीकरण के नाम पर कोरोना काल में केंद्र सरकार द्वारा संशोधित कर लागू किये गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में पिछले 52 दिनों से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को घेरकर प्रदर्शन कर रहे किसानों के आंदोलन में नित नए खेल हो रहे हैं ! कानून वापसी की जिद पर अड़े किसानों के आंदोलन को फेल करने के लिए जिस तरह केंद्र सरकार और सत्तारुढ़ दल की सभी कुटिल चालें ख़ुद-ब-ख़ुद फेल हो गईं वहीं दूसरी ओर हिमायत का चोला ओढ़कर मध्यस्तता की भूमिका में आये सुप्रीम कोर्ट की स्थिति भी बिन बुलाए मेहमान जैसी हो गई है ! स्वतः संज्ञान और जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने किसान आंदोलन के शुरुआती दौर में जिस तरह की टिप्पणी की थी उससे लगा था कि सुप्रीम कोर्ट को अपनी गरिमा और देश के संविधान के साथ ही लोकतंत्र की रक्षा करने की चिंता है ! लेकिन आंदोलनकारी किसान नेताओं के स्पष्ट संकेतों को नजरअंदाज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह का चौधरीपन दिखाया उससे उसकी मंशा पर सवाल उठना लाज़मी हो गया है ! कानून और संविधान के जानकार इस बात से सहमत और असहमत हो सकते हैं लेकिन प्राकृतिक सच्चाई से किसी भी कीमत पर मुंह नहीं मोड़ा जा सकता ?
प्राकृतिक सच्चाई यही है कि केंद्र सरकार द्वारा सुधारीकरण की आड़ में पुराने कृषि कानूनों को संधोधित करके जो तीन नए कृषि कानून लागू किये गए हैं वो किसानों के व्यापक हित में होने के बजाय किसान विरोधी हैं ! यह बात अलग है कि इस समय पूरा देश मोदीमय है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा की लोकप्रियता में उसके समर्थक सरकार के किसी भी काम व कदम को न तो नकारात्मक दृष्टि से ख़ुद ही देख रहे हैं और न ही नकारात्मक दृष्टि से देखकर उसका विरोध करने वाले को बर्दाश्त कर रहे हैं ! यही वज़ह है कि मीडिया और सोशल मीडिया सामान्य जन जीवन में तीनों कृषि कानूनों पर विरोध से अधिक समर्थन दिखाई पड़ रहा है। लेकिन क्या इस भारी जन समर्थन से सच्चाई छुप सकती है ? सच्चाई कतई नहीं छुप सकती ! पूरा देश जानता ही है कि नए कृषि कानूनों के विरोध में ही सत्तारूढ़ दल के सबसे पुराने सहयोगी और पंजाब के साथ ही सिख समुदाय में मजबूत पकड़ रखने वाले अकाली दल ने तख़्त और ताज को ठोकर मारकर किसानों का साथ देना स्वीकार कर लिया है ! खेती किसानी को पढ़े-लिखे और व्यवसायिक ढंग से करने वाले पंजाब और हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक,केरल, तमिलनाडु आदि के किसानों ने जब केंद्र सरकार द्वारा लागू किये संशोधित कृषि कानूनों के बारे में ठीक से समझा और विरोध करने का निर्णय लिया तो केंद्र सरकार के दबाव में अलग-अलग राज्य सरकारों ( भाजपा शाषित राज्य सरकार ) ने प्रशासनिक ताकत से किसानों और उनका समर्थन करने वाले राजनैतिक दलों को डरा धमकाकर उनके घरों में ही कैद कर दिया ! लेकिन पंजाब और हरियाणा के सिख व जाट किसानों ने पश्चिमी यूपी के लाखों किसानों को लेकर दिल्ली को घेर रखा है।
शायद सरकार की दमनकारी नीति के चलते ही अनहोनी की आशंका को देखकर आंदोलन के शुरुआती दौर में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेने के साथ ही जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए किसान आंदोलन को जायज़ मानते हुए केंद्र सरकार को संकेत किया था कि वो किसानों के साथ बातचीत करके इस मुद्दे का हल निकाले ! लेकिन केंद्र सरकार ने अंहकार में आकर अपनी मजबूरियों व अंतरराष्ट्रीय समझौतों की हकीक़त के चलते लिए गए निर्णयों से किसानों को समझाने के बजाय जो गलती की है वो देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है ! क्योंकि किसान अपना हित देख रहे हैं और सरकार के सामने कृषि उत्पादों पर दी जाने वाली छूट में कटौती करने की मजबूरी है ! सरकार पर विश्व व्यापार संगठन के नियमों के साथ ही अपने सहयोगियों का हित भी देखना है ! यही वज़ह है कि आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच लंबे वक्त से चल रही बातचीत से जब कोई हल नहीं निकला तो सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी। यही नहीं शीर्ष अदालत ने मोदी सरकार के नए कृषि काूननों के अमल होने पर अगले आदेश तक रोक लगाने के साथ ही इन कानूनों की समीक्षा के लिए चार सदस्यीय समिति भी गठित कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने जिन दो दिनों में इस कार्यवाही को अंजाम दिया उन दोनों दिनों में ही नहीं बल्कि उससे पहले भी किसान नेता यही कहते रहे कि उनकी ओर से समिति में कोई नेता शामिल नहीं होगा ! चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद ही संकेत दिया था कि बनने वाली समिति में किसी सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस को शामिल किया जायेगा जिसकी अगुवाई में नए कृषि कानूनों का परीक्षण होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब समिति बनाई तो उसमें किसान यूनियन के भूपेंद्र सिंह मान, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी (कृषि विशेषज्ञ), अशोक गुलाटी (कृषि विशेषज्ञ) और अनिल घनावंत (शेतकारी संगठन) को शामिल करके समिति की घोषणा कर दी।
सबसे अहम बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने नए कृषि कानूनों का परीक्षण करने के लिए बनाई गई समिति में किसी सेवानिवृत चीफ जस्टिस को नहीं रखा है ! दूसरी अहम बात यह है कि जिन लोगों को समिति की जिम्मेदारी सौंपी है उन सभी लोगों ने इन कृषि कानूनों को पहले ही सही मानकर सरकार की वकालत कर रखी है। ऐसी स्थिति में किसान नेताओं की यह आशंका किसी भी स्तर पर निराधार नहीं हो सकती कि इस समिति के जरिये उन्हें न्याय मिल पायेगा। क्योंकि इस समिति के एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान जो खुद में एक कथित किसान संगठन 'किसान यूनियन' के नेता के रूप में किसानों के एक दल के साथ कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिल चुके हों और तीनों कृषि कानूनों को किसान हित में बता चुके हों ? समिति में रहकर भला वो किस मुंह और मन से आंदोलनकारी किसानों के हित में कृषि कानून का विरोध कर पायेंगे ? इस तरह अगर देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई समिति आंदोलित किसानों के सोने का हिरण होने जैसा ही है ! जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट की मंशा पर सवालिया निशान लगना भी स्वाभाविक है ? यह बात अलग है कि समिति के सदस्य भूपेंद्र सिंह मान ने प्रेस रिलीज़ जारी करके समिति का हिस्सा न बनने का ऐलान कर दिया है जिससे किसान आंदोलन और सरकार के बीच चल रहा टकराव नाटकीय दौर में पहुंच गया है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार समिति को 10 दिन के अंदर मीटिंग करने के बाद अगले 50 दिनों में कृषि कानूनों के आधार पर किसानों से वार्ता करके अपनी रिपोर्ट सौपनीं थी ! जो फ़िलहाल अब सम्भव नहीं दिख रहा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
प्राकृतिक सच्चाई यही है कि केंद्र सरकार द्वारा सुधारीकरण की आड़ में पुराने कृषि कानूनों को संधोधित करके जो तीन नए कृषि कानून लागू किये गए हैं वो किसानों के व्यापक हित में होने के बजाय किसान विरोधी हैं ! यह बात अलग है कि इस समय पूरा देश मोदीमय है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा की लोकप्रियता में उसके समर्थक सरकार के किसी भी काम व कदम को न तो नकारात्मक दृष्टि से ख़ुद ही देख रहे हैं और न ही नकारात्मक दृष्टि से देखकर उसका विरोध करने वाले को बर्दाश्त कर रहे हैं ! यही वज़ह है कि मीडिया और सोशल मीडिया सामान्य जन जीवन में तीनों कृषि कानूनों पर विरोध से अधिक समर्थन दिखाई पड़ रहा है। लेकिन क्या इस भारी जन समर्थन से सच्चाई छुप सकती है ? सच्चाई कतई नहीं छुप सकती ! पूरा देश जानता ही है कि नए कृषि कानूनों के विरोध में ही सत्तारूढ़ दल के सबसे पुराने सहयोगी और पंजाब के साथ ही सिख समुदाय में मजबूत पकड़ रखने वाले अकाली दल ने तख़्त और ताज को ठोकर मारकर किसानों का साथ देना स्वीकार कर लिया है ! खेती किसानी को पढ़े-लिखे और व्यवसायिक ढंग से करने वाले पंजाब और हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक,केरल, तमिलनाडु आदि के किसानों ने जब केंद्र सरकार द्वारा लागू किये संशोधित कृषि कानूनों के बारे में ठीक से समझा और विरोध करने का निर्णय लिया तो केंद्र सरकार के दबाव में अलग-अलग राज्य सरकारों ( भाजपा शाषित राज्य सरकार ) ने प्रशासनिक ताकत से किसानों और उनका समर्थन करने वाले राजनैतिक दलों को डरा धमकाकर उनके घरों में ही कैद कर दिया ! लेकिन पंजाब और हरियाणा के सिख व जाट किसानों ने पश्चिमी यूपी के लाखों किसानों को लेकर दिल्ली को घेर रखा है।
शायद सरकार की दमनकारी नीति के चलते ही अनहोनी की आशंका को देखकर आंदोलन के शुरुआती दौर में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेने के साथ ही जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए किसान आंदोलन को जायज़ मानते हुए केंद्र सरकार को संकेत किया था कि वो किसानों के साथ बातचीत करके इस मुद्दे का हल निकाले ! लेकिन केंद्र सरकार ने अंहकार में आकर अपनी मजबूरियों व अंतरराष्ट्रीय समझौतों की हकीक़त के चलते लिए गए निर्णयों से किसानों को समझाने के बजाय जो गलती की है वो देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है ! क्योंकि किसान अपना हित देख रहे हैं और सरकार के सामने कृषि उत्पादों पर दी जाने वाली छूट में कटौती करने की मजबूरी है ! सरकार पर विश्व व्यापार संगठन के नियमों के साथ ही अपने सहयोगियों का हित भी देखना है ! यही वज़ह है कि आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच लंबे वक्त से चल रही बातचीत से जब कोई हल नहीं निकला तो सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी। यही नहीं शीर्ष अदालत ने मोदी सरकार के नए कृषि काूननों के अमल होने पर अगले आदेश तक रोक लगाने के साथ ही इन कानूनों की समीक्षा के लिए चार सदस्यीय समिति भी गठित कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने जिन दो दिनों में इस कार्यवाही को अंजाम दिया उन दोनों दिनों में ही नहीं बल्कि उससे पहले भी किसान नेता यही कहते रहे कि उनकी ओर से समिति में कोई नेता शामिल नहीं होगा ! चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद ही संकेत दिया था कि बनने वाली समिति में किसी सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस को शामिल किया जायेगा जिसकी अगुवाई में नए कृषि कानूनों का परीक्षण होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब समिति बनाई तो उसमें किसान यूनियन के भूपेंद्र सिंह मान, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी (कृषि विशेषज्ञ), अशोक गुलाटी (कृषि विशेषज्ञ) और अनिल घनावंत (शेतकारी संगठन) को शामिल करके समिति की घोषणा कर दी।
सबसे अहम बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने नए कृषि कानूनों का परीक्षण करने के लिए बनाई गई समिति में किसी सेवानिवृत चीफ जस्टिस को नहीं रखा है ! दूसरी अहम बात यह है कि जिन लोगों को समिति की जिम्मेदारी सौंपी है उन सभी लोगों ने इन कृषि कानूनों को पहले ही सही मानकर सरकार की वकालत कर रखी है। ऐसी स्थिति में किसान नेताओं की यह आशंका किसी भी स्तर पर निराधार नहीं हो सकती कि इस समिति के जरिये उन्हें न्याय मिल पायेगा। क्योंकि इस समिति के एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान जो खुद में एक कथित किसान संगठन 'किसान यूनियन' के नेता के रूप में किसानों के एक दल के साथ कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिल चुके हों और तीनों कृषि कानूनों को किसान हित में बता चुके हों ? समिति में रहकर भला वो किस मुंह और मन से आंदोलनकारी किसानों के हित में कृषि कानून का विरोध कर पायेंगे ? इस तरह अगर देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई समिति आंदोलित किसानों के सोने का हिरण होने जैसा ही है ! जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट की मंशा पर सवालिया निशान लगना भी स्वाभाविक है ? यह बात अलग है कि समिति के सदस्य भूपेंद्र सिंह मान ने प्रेस रिलीज़ जारी करके समिति का हिस्सा न बनने का ऐलान कर दिया है जिससे किसान आंदोलन और सरकार के बीच चल रहा टकराव नाटकीय दौर में पहुंच गया है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार समिति को 10 दिन के अंदर मीटिंग करने के बाद अगले 50 दिनों में कृषि कानूनों के आधार पर किसानों से वार्ता करके अपनी रिपोर्ट सौपनीं थी ! जो फ़िलहाल अब सम्भव नहीं दिख रहा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
15th January, 2021