अरुण कुमार त्रिपाठी, यूरीड मीडिया-अरुंधती राय लिखती हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक नोवल कोरोना वायरस से युद्ध की घोषणा कर रहे हैं। युद्ध की शब्दावली में महामारी से निपटने का यह अभियान अनोखा है। इसी के साथ वे सवाल करती हैं कि क्या अमेरिका सचमुच युद्ध लड़ रहा है? अगर अमेरिका जैसा महाबली युद्ध लड़ रहा होता तो क्या उसके पास बम, बंदूक, लड़ाकू विमान, गोला बारूद, मिसाइलों और बंकरों की कमी होती? शायद नहीं। लेकिन विडंबना देखिए कि न्यूयार्क में नर्सें कूड़ेदान से कपड़े और बरसाती निकालकर मास्क और रेनकोट बना रही हैं। रोगियों को बाहर निकालने वाले वीडियो वायरल हो रहे हैं।
इसलिए सवाल उठता है कि क्या युद्ध की मानसिकता में रहने वाले राष्ट्र राज्य ने मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया है? क्या उसने युद्ध के आविष्कारों पर ज्यादा खर्च किया है और अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की उपेक्षा की है? इसके अलावा सवाल यह भी बनता है कि क्या स्वास्थ्य की रक्षा का सवाल युद्ध जैसा ही है या युद्ध से अलग है? क्या स्वास्थ्य की रक्षा के सवाल में लड़ाई से ज्यादा सत्य, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, साधन की पवित्रता और सेवा नहीं शामिल है? ऐसा तो नहीं कि हम जब भी युद्ध की बात करते हैं तो डार्विन के सिद्धांत सर्वाइवल आफ फिटेस्ट यानी योग्यतम की उत्तरजीविता की ओर जाते हैं और हम जब भी सेवा की बात करते हैं तो बच्चे, बूढ़े, स्त्रियां सभी के साथ प्रकृति को बचाने की बात करते हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि युद्ध में झूठ, छल कपट सभी चलता है। लेकिन सेवा में त्याग, संयम और प्रेम का महत्व होता है। इसीलिए सवाल है कि क्या कोरोना से बचने के इस अभियान को युद्ध कहने की बजाय सत्याग्रह कहना नहीं उचित होगा?
वैसे दिखाने के लिए अमेरिका और यूरोप की सरकारें रक्षा बजट का ढाई गुना स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती हैं लेकिन हकीकत में रक्षा का बजट जितना दिखाया जाता है उससे बहुत ज्यादा है। अमेरिका दुनिया के दूसरे हिस्सों में रक्षा बजट पर जो खर्च करता है वह उसके प्रकट व्यय से काफी ज्यादा है। अमेरिका के डेमोक्रेट सीनेटर बर्नी उनकी पार्टी ही उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने को तैयार नहीं है। अमेरिका 700 अरब डालर से ज्यादा रकम सेना पर खर्च करता है। वह पेंटागन को जितनी रकम देता है उसका एक बड़ा हिस्सा बचा रहा जाता है कि जबकि उसके कोई कार्यक्रम अधूरे नहीं रहते। वहां अफोर्डेबल केयर एक्ट को खत्म करवाने में दोनों पार्टियों के लोग लगे हैं जबकि नेशनल डिफेंस अथराइजेशन एक्ट के तहत मिलने वाली राशि को कम करवाना कोई नहीं चाहता।
भारत में भी जनस्वास्थ्य पर पिछले दो दशकों से जीडीपी का 1.1 प्रतिशत से 1.6 प्रतिशत से ज्यादा खर्च नहीं किया जाता। जबकि रक्षा का व्यय 2.3 प्रतिशत से ऊपर है। स्वास्थ्य पर भारत का खर्च पाकिस्तान से थोड़ा ही ज्यादा है। पाकिस्तान अपने जीडीपी का 0.9 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यह दोनों देशों के बीच सैन्य प्रतिस्पर्धा का प्रभाव हो सकता है और शीतयुद्ध के बाद समाप्त हुए सभ्यताओं के संघर्ष का भी असर। भारत के मुकाबले चीन अपने जीडीपी का 3.2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है। हालांकि वह रक्षा व्यय जीडीपी दो प्रतिशत तक दिखाता है लेकिन हकीकत में वह उससे कहीं ज्यादा है।
यह सोच उदारीकरण के दौर में और बढ़ा है। स्वास्थ्य सेवाओं को अमेरिका की तर्ज पर लक्जरी माना जाना लगा या बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों के हितों को ध्यान में रखते हुए मेडिकल इंश्योरेंस और आयुष्मान जैसी योजनाएं शुरू की गईं। यह स्थितियां बताती हैं कि दुनिया की जिन सरकारों ने स्वास्थ्य की कीमत पर हथियारों को जमा करके राष्ट्रों से युद्ध की तैयारी की है उन्हें एक दिन बीमारियों से जंग लड़नी ही पड़ेगी और वह जंग उन हथियारों से नहीं लड़ी जाएगी जिससे सीमा की सुरक्षा की जाती है या पड़ोसी देशों को डराया जाता है। वह जंग उन हथियारों से भी नहीं लड़ी जा सकती जिनसे एटमी हथियार दागे जाते हैं या फिर मिसाइलें दागी जाती हैं।
विडंबना यह है कि राष्ट्रों का नेतृत्व करने वाले राजनेता सदैव युद्ध की ही भाषा में संवाद करते हैं। मामला इतना ही नहीं है हमारे सभ्यतामूलक विमर्श खड़ा करने वाले लोग भी हर बड़े काम को युद्ध के रूपक से ही संबोधित करते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि कोरोना महामारी के समय `रामायण’ और `महाभारत’ जैसे दो धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं और उनका भी संदेश अपने शत्रु को पराजित करने के लिए युद्ध जीतने के रूप में ही लिया जा रहा है। हमारी राजनीति और साहित्य का आख्यान शांति से युद्ध की यात्रा है। वह युद्ध करता है तो शांति का बहाना बनाकर और शांति में रहता है तो युद्ध की तैयारी करता रहता है। कभी वह पड़ोसी देश से युद्ध करता है, तो कभी आतंकवादियों से। जब वे नहीं तैयार होते तो वह अपनी जनता से युद्ध करता है। ऐसे में जब उसे एक अदृश्य विषाणु से बचना है तो उसे भी युद्ध का नाम दिया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह युद्ध को सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रयास मानता है। इसी को ध्यान में रखते हुए नोम चोमस्की ने कहा है कि महामारी बड़ी है लेकिन उसके बावजूद नाभिकीय युद्ध का खतरा टला नहीं है।
यहां गांधी और सावरकर का लंदन में 1909 में हुआ संवाद याद करने लायक है। दशहरे के मौके पर एक व्याख्यान देने गए गांधी से सावरकर कहते हैं कि जिस तरह राम ने असुरों को मारकर अपनी जीत हासिल की वह भारत की आजादी के लिए भी एक संदेश है। वह बुराई पर अच्छाई की विजय है और उसके लिए हिंसा अनिवार्य है। यहीं पर गांधी उनसे मतभेद प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि उनके राम युद्धोन्मादी नहीं बल्कि सत्य के अन्वेषी हैं। राम का सारा संघर्ष कहीं बाहर नहीं हमारी भीतर की बुराइयों से संघर्ष है। उसमें हिंसा नहीं है बल्कि संयम और सत्याग्रह है।
कोरोना से बचाव और इलाज के इस अभियान को जो लोग युद्ध की संज्ञा दे रहे हैं वे कोरोना के खत्म होने के बाद फिर कोई शत्रु ढूंढ लेंगे और उससे लड़ाई करने लगे। इसीलिए मानव स्वास्थ्य और प्रकृति के इस असंतुलन में एक ओर अमेरिका और चीन के बीच वायरस युद्ध की चर्चा चल रही है तो दूसरी ओर व्यापारिक युद्ध की। इधर भारत में मीडिया और सरकार का तंत्र मूर्खता करने वाले तब्लीगी जमात वालों के बहाने एक मजहब से लड़ाई लड़ रहे हैं। वे उन्हें कोरोना बम कह कर संबोधित कर रहे हैं और इस लड़ाई को आतंकवाद के विरुद्ध होने वाली लड़ाई का एक विस्तार मान रहे हैं। इस दौरान एक ओर महामारी है तो दूसरी ओर झूठी सूचनाओं की बाढ़ है। यही कारण है कि डब्लूएचओ के निदेशक ने कहा है कि पैंडमिक्स के साथ इन्फोडेमिक्स का भी खतरा बढ़ रहा है।
पैन्डमिक्स और इन्फोडेमिक्स के इस जलजले में युद्ध से ज्यादा जरूरत है तो वह है सत्याग्रह की। क्योंकि यहां मनुष्य मनुष्य को मारने की बजाय उसे बचाने के अभियान में लगा हुआ है। यह सत्याग्रह डाक्टरों, वैज्ञानिकों, सरकारों और समाजसेवियों सभी के लिए अनुकरणीय है। उसका अर्थ है कि सभी के भीतर क्रोध, बदले की भावना, द्वेष और झूठ की बजाय एक प्रकार की सत्यान्वेषी सोच, सेवा भाव, करुणा, दया, क्षमा, साधन की पवित्रता और प्रेम होना चाहिए। इस वायरस से मनुष्य से तभी बचेगा जब वह उसके पूरे सत्य को जानेगा, यानी उस प्राकृतिक और राजनीतिक असंतुलन को जानेगा जिसके कारण इस वायरस को सक्रिय होने का मौका मिलेगा। इसी के साथ वह सत्य के उस हिस्से को भी जानेगा जिनके तहत विभिन्न देशों के भीतर खींचतान और साजिशें चल रही हैं। संभव है युद्ध के बजाय सत्याग्रह के माध्यम से हम वायरस और प्रकृति को बदल दें या उसका हृदय परिवर्तन कर दें और इस तरह नई, ज्यादा सुरक्षित, ज्यादा शांतिपूर्ण और व्यवस्थित दुनिया की रचना कर डालें।
इसलिए सवाल उठता है कि क्या युद्ध की मानसिकता में रहने वाले राष्ट्र राज्य ने मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया है? क्या उसने युद्ध के आविष्कारों पर ज्यादा खर्च किया है और अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की उपेक्षा की है? इसके अलावा सवाल यह भी बनता है कि क्या स्वास्थ्य की रक्षा का सवाल युद्ध जैसा ही है या युद्ध से अलग है? क्या स्वास्थ्य की रक्षा के सवाल में लड़ाई से ज्यादा सत्य, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, साधन की पवित्रता और सेवा नहीं शामिल है? ऐसा तो नहीं कि हम जब भी युद्ध की बात करते हैं तो डार्विन के सिद्धांत सर्वाइवल आफ फिटेस्ट यानी योग्यतम की उत्तरजीविता की ओर जाते हैं और हम जब भी सेवा की बात करते हैं तो बच्चे, बूढ़े, स्त्रियां सभी के साथ प्रकृति को बचाने की बात करते हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि युद्ध में झूठ, छल कपट सभी चलता है। लेकिन सेवा में त्याग, संयम और प्रेम का महत्व होता है। इसीलिए सवाल है कि क्या कोरोना से बचने के इस अभियान को युद्ध कहने की बजाय सत्याग्रह कहना नहीं उचित होगा?
वैसे दिखाने के लिए अमेरिका और यूरोप की सरकारें रक्षा बजट का ढाई गुना स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती हैं लेकिन हकीकत में रक्षा का बजट जितना दिखाया जाता है उससे बहुत ज्यादा है। अमेरिका दुनिया के दूसरे हिस्सों में रक्षा बजट पर जो खर्च करता है वह उसके प्रकट व्यय से काफी ज्यादा है। अमेरिका के डेमोक्रेट सीनेटर बर्नी उनकी पार्टी ही उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने को तैयार नहीं है। अमेरिका 700 अरब डालर से ज्यादा रकम सेना पर खर्च करता है। वह पेंटागन को जितनी रकम देता है उसका एक बड़ा हिस्सा बचा रहा जाता है कि जबकि उसके कोई कार्यक्रम अधूरे नहीं रहते। वहां अफोर्डेबल केयर एक्ट को खत्म करवाने में दोनों पार्टियों के लोग लगे हैं जबकि नेशनल डिफेंस अथराइजेशन एक्ट के तहत मिलने वाली राशि को कम करवाना कोई नहीं चाहता।
भारत में भी जनस्वास्थ्य पर पिछले दो दशकों से जीडीपी का 1.1 प्रतिशत से 1.6 प्रतिशत से ज्यादा खर्च नहीं किया जाता। जबकि रक्षा का व्यय 2.3 प्रतिशत से ऊपर है। स्वास्थ्य पर भारत का खर्च पाकिस्तान से थोड़ा ही ज्यादा है। पाकिस्तान अपने जीडीपी का 0.9 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यह दोनों देशों के बीच सैन्य प्रतिस्पर्धा का प्रभाव हो सकता है और शीतयुद्ध के बाद समाप्त हुए सभ्यताओं के संघर्ष का भी असर। भारत के मुकाबले चीन अपने जीडीपी का 3.2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है। हालांकि वह रक्षा व्यय जीडीपी दो प्रतिशत तक दिखाता है लेकिन हकीकत में वह उससे कहीं ज्यादा है।
यह सोच उदारीकरण के दौर में और बढ़ा है। स्वास्थ्य सेवाओं को अमेरिका की तर्ज पर लक्जरी माना जाना लगा या बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों के हितों को ध्यान में रखते हुए मेडिकल इंश्योरेंस और आयुष्मान जैसी योजनाएं शुरू की गईं। यह स्थितियां बताती हैं कि दुनिया की जिन सरकारों ने स्वास्थ्य की कीमत पर हथियारों को जमा करके राष्ट्रों से युद्ध की तैयारी की है उन्हें एक दिन बीमारियों से जंग लड़नी ही पड़ेगी और वह जंग उन हथियारों से नहीं लड़ी जाएगी जिससे सीमा की सुरक्षा की जाती है या पड़ोसी देशों को डराया जाता है। वह जंग उन हथियारों से भी नहीं लड़ी जा सकती जिनसे एटमी हथियार दागे जाते हैं या फिर मिसाइलें दागी जाती हैं।
विडंबना यह है कि राष्ट्रों का नेतृत्व करने वाले राजनेता सदैव युद्ध की ही भाषा में संवाद करते हैं। मामला इतना ही नहीं है हमारे सभ्यतामूलक विमर्श खड़ा करने वाले लोग भी हर बड़े काम को युद्ध के रूपक से ही संबोधित करते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि कोरोना महामारी के समय `रामायण’ और `महाभारत’ जैसे दो धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं और उनका भी संदेश अपने शत्रु को पराजित करने के लिए युद्ध जीतने के रूप में ही लिया जा रहा है। हमारी राजनीति और साहित्य का आख्यान शांति से युद्ध की यात्रा है। वह युद्ध करता है तो शांति का बहाना बनाकर और शांति में रहता है तो युद्ध की तैयारी करता रहता है। कभी वह पड़ोसी देश से युद्ध करता है, तो कभी आतंकवादियों से। जब वे नहीं तैयार होते तो वह अपनी जनता से युद्ध करता है। ऐसे में जब उसे एक अदृश्य विषाणु से बचना है तो उसे भी युद्ध का नाम दिया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह युद्ध को सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रयास मानता है। इसी को ध्यान में रखते हुए नोम चोमस्की ने कहा है कि महामारी बड़ी है लेकिन उसके बावजूद नाभिकीय युद्ध का खतरा टला नहीं है।
यहां गांधी और सावरकर का लंदन में 1909 में हुआ संवाद याद करने लायक है। दशहरे के मौके पर एक व्याख्यान देने गए गांधी से सावरकर कहते हैं कि जिस तरह राम ने असुरों को मारकर अपनी जीत हासिल की वह भारत की आजादी के लिए भी एक संदेश है। वह बुराई पर अच्छाई की विजय है और उसके लिए हिंसा अनिवार्य है। यहीं पर गांधी उनसे मतभेद प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि उनके राम युद्धोन्मादी नहीं बल्कि सत्य के अन्वेषी हैं। राम का सारा संघर्ष कहीं बाहर नहीं हमारी भीतर की बुराइयों से संघर्ष है। उसमें हिंसा नहीं है बल्कि संयम और सत्याग्रह है।
कोरोना से बचाव और इलाज के इस अभियान को जो लोग युद्ध की संज्ञा दे रहे हैं वे कोरोना के खत्म होने के बाद फिर कोई शत्रु ढूंढ लेंगे और उससे लड़ाई करने लगे। इसीलिए मानव स्वास्थ्य और प्रकृति के इस असंतुलन में एक ओर अमेरिका और चीन के बीच वायरस युद्ध की चर्चा चल रही है तो दूसरी ओर व्यापारिक युद्ध की। इधर भारत में मीडिया और सरकार का तंत्र मूर्खता करने वाले तब्लीगी जमात वालों के बहाने एक मजहब से लड़ाई लड़ रहे हैं। वे उन्हें कोरोना बम कह कर संबोधित कर रहे हैं और इस लड़ाई को आतंकवाद के विरुद्ध होने वाली लड़ाई का एक विस्तार मान रहे हैं। इस दौरान एक ओर महामारी है तो दूसरी ओर झूठी सूचनाओं की बाढ़ है। यही कारण है कि डब्लूएचओ के निदेशक ने कहा है कि पैंडमिक्स के साथ इन्फोडेमिक्स का भी खतरा बढ़ रहा है।
पैन्डमिक्स और इन्फोडेमिक्स के इस जलजले में युद्ध से ज्यादा जरूरत है तो वह है सत्याग्रह की। क्योंकि यहां मनुष्य मनुष्य को मारने की बजाय उसे बचाने के अभियान में लगा हुआ है। यह सत्याग्रह डाक्टरों, वैज्ञानिकों, सरकारों और समाजसेवियों सभी के लिए अनुकरणीय है। उसका अर्थ है कि सभी के भीतर क्रोध, बदले की भावना, द्वेष और झूठ की बजाय एक प्रकार की सत्यान्वेषी सोच, सेवा भाव, करुणा, दया, क्षमा, साधन की पवित्रता और प्रेम होना चाहिए। इस वायरस से मनुष्य से तभी बचेगा जब वह उसके पूरे सत्य को जानेगा, यानी उस प्राकृतिक और राजनीतिक असंतुलन को जानेगा जिसके कारण इस वायरस को सक्रिय होने का मौका मिलेगा। इसी के साथ वह सत्य के उस हिस्से को भी जानेगा जिनके तहत विभिन्न देशों के भीतर खींचतान और साजिशें चल रही हैं। संभव है युद्ध के बजाय सत्याग्रह के माध्यम से हम वायरस और प्रकृति को बदल दें या उसका हृदय परिवर्तन कर दें और इस तरह नई, ज्यादा सुरक्षित, ज्यादा शांतिपूर्ण और व्यवस्थित दुनिया की रचना कर डालें।
9th April, 2020