यूपी में त्रिकोणात्मक रूख अपनाएगा कांग्रेसी गठबंधन भाजपा का अब भी वोट बैंक स्थिर
विजय शंकर पंकज
लखनऊ, (यूरीड मीडिया)। उत्तर प्रदेश की राजनीति में 25 वर्ष बाद हुए समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को लेकर तहलका मचा हुआ है। यह गठबंधन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। रामलहर में भाजपा के बढे विजय रथ को रोकने में इस गठबंधन ने महति भूमिका निभायी थी परन्तु तब भी उसे संपूर्ण गैर भाजपायी दलों का समर्थन लेने को मजबूर होना पड़ा था। वर्ष 1993 मेंभी कांग्रेस तथा रालोद की स्थिति वर्तमान स्थिति से काफी मजबूत थी। सपा-बसपा गठबंधन के बाद भी भाजपा 1993 के चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी परन्तु कांग्रेस और रालोद के समर्थन से मुलायम सिंह यादव की सरकार बनी। सपा-बसपा गठबंधन के बाद इन दलों के कार्यकर्ताओं में अतिउत्साह है परन्तु देश के राजनैतिक परिदृश्य में स्थितियां इन दलों के नेताओं के लिए अनुकूल नही है। देश के राजनीति क्षितिज में सपा-बसपा नेताओं की विश्वसनीयता घटी है और बड़े दल के रूप में कांग्रेस किसी ऐसे नेता को अपना समर्थन देने से बचेगी जिसके कार्यव्यवहार उनके अनुकूल न हो। अन्य क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांछा भी एक दूजे को लेकर किसी के पक्ष में समर्थन देने की नही है।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक परिदृश्य क्षेत्रीय दलों के लिए उतना अनुकूल नही है, जो पिछली मिलीजुली सरकारओं के समय हुआ। केन्द्र में गैर भाजपा सरकार के लिए कोई भी गठबंधन बिना कांग्रेस के सफल नही हो सकता। कांग्रेस को छोड़कर किसी भी क्षेत्रीय दल की यह हैसियत नही है कि उनके 40 सांसद भी जीत सके। ऐेसे में क्षेत्रीय दल का कोई नेता यह सपना देखे कि कांग्रेस उसे समर्थन देकर प्रधानमंत्री बना देगी, वर्तमान राजनैतिक परिवेश में यह दिवास्वप्न जैसा है। कांग्रेस का चन्द्रशेखर, देेवेगौड़ा तथा इन्द्रजीत गुजराल को समर्थन देने की राजनीतिक परिस्थितियों और वर्ष 2019 के राजनीतिक हालात में काफी बदलाव आया है। सपा ने 2004 के लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक 35 सीटें जीती जो 2009 में घटकर 23 रह गयी। बसपा 2009 के चुनाव में सर्वाधिक 20 सीटे जीती। लोकसभा के इन दोनों चुनावों के समय राज्य में सपा एवं बसपा की सरकारें थी। वर्षो में प्रदेश की राजनीति में कमजोर होती कांग्रेस ने 2009 के चुनाव में 21 सीटें जीतकर अन्य दलों को अचम्भित कर दिया था।
सपा एवं बसपा नेतृत्व को अपने संगठन के हालात की असलियत को समझना पड़ेगा। वर्ष 2007 में बसपा तथा 2012 में सपा की उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकारें बनी। इन सरकारओं की कार्यशैली ने पार्टी के संगठनात्मक ढ़ाचे को काफी क्षति पहुंचायी। अखिलेश सरकार में पिछड़ो-मुस्लिमों की पार्टी कही जाने वाली सपा केवल यादव विरादरी की बनकर रह गयी। कुर्मी, मौर्या, कुशवाहा, सैनी तथा अन्य पिछड़ी जातियां सपा से दूर हो गयी है। यादववाद में भी मुलायम सिंह यादव का पारिवारिक कलह और अखिलेश की दबंगई ने परिवार में ही विभाजन करा दिया। हालात यह हुए कि अखिलेश ने अपने ही पिता मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर कब्जा जमा लिया तो यादव परिवार के नंबर दो परेशान चचा शिवपाल यादव सपा से हटकर नयी पार्टी बना चुके है। इसी प्रकार 2007 में मायावती की सरकार में चमार एवं जाटव को छोड़कर अन्य दलित वर्ग पार्टी से अलग हो चुका है। बसपा के साथ लंबे समय तक साथ देने वाले कुर्मी, गड़ेरिया, कुशवाहा, मौर्या, राजभर तथा नोनिया विरादरी के पिछड़े भी अलग हो गये है। बसपा की सियासत में ब्राह्मण नेता के रूप में उभरे सतीश चन्द्र मिश्र की दखलन्दाजी से जाटव विरादरी में काफी नाखुश है। इस प्रकार मायावती-अखिलेश के इस सियासी गठबंधन में 13 प्रतिशत चमार-जाटव तथा 8 प्रतिशत यादव का ही योगदान होना है। भाजपा विरोध के नाम पर जहां गठबंधन प्रत्याशी हावी होगा, वहां पर मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिल जाएगा। मुस्लिम मतों में कांग्रेस गठबंधन की भी भूमिका महति होगी। मुस्लिम मतदाताओं में अब यही यह संशय है कि बसपा कभी भी पाला बदलकर भाजपा का साथ देगी। यही नही स्थानीय स्तर पर भी यादव एवं बसपा के दलित समर्थको में आपसी कटुता नया रंग दिखा सकती है। यादवों से पीड़ित दलितों की पीड़ा देखने मायावती कभी भी नही जाती है।
सपा-बसपा गठबंधन के लिए कांग्रेसी गठबंधन सबसे ज्यादा खतरनाक होगा। सपा-बसपा गठबंधन में महत्व न मिलने से रालोद नेता अजित सिंह नाराज चल रहे है और वह कांग्रेस से वार्ता कर रहे है। सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस का रालोद के साथ ही सपा के विद्रोही शिवपाल गुट से समझौता अन्तिम चरणों में है। इसके साथ ही कांग्रेस नेतृत्व कुछ अन्य छोटे दलों के साथ भी समझौता करने में जुटा है। कांग्रेस का यह गठबंधन सपा-बसपा की नींव हिला सकता है। इन दोनों गठबंधनों के बीच भाजपा के वोट बैंक में कोई कमी नही दिखती है। वर्ष 2014 के चुनाव में भाजपा के साथ यादव छोड़ अन्य पिछड़ा वर्ग तथा चमार जाटव छोड़ अन्य दलित वर्ग साथ खड़ा नजर आ रहा है। इसके साथ ही अब भी सवर्ण वर्ग के लिए भाजपा के अलावा अन्य कोई विकल्प नही है। सपा-बसपा गठबंधन ने नाराज चल रहे सवर्णो को भी भाजपा से जोड़ने में अति महति भूमिका निभायी है।
सपा बसपा गठबंधन को प्रदेश की आधी लोकसभा सीटें हासिल करने के लिए भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। अति उत्साह उनकी रणनीति को विफल कर सकती है। गठबंधन के बाद बसपा के टिकट की दरें काफी बढ़ गयी है। चर्चा है कि जौनपुर की लोस सीट के लिए बसपा के पास 35 करोड़ का आफर है तो पश्चिम की कई सीटों की दरें 20 से 30 करोड़ की हो गयी है। इसके बावजूद सपा अपने विश्वसनीय नेताओं को स्थापित करने में जुटा हुआ है। इन राजनीतिक समीकरणों के बीच राजनीतिक धुरी के अन्तरविरोध को भी समझना होगा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा 34 तथा सपा 31 सीटों पर नंबर दो थे। बसपा का कोई प्रत्याशी नही जीता था। जबकि सपा के 5 प्रत्याशी जीते थे। इस प्रकार सपा-बसपा के नंबर दो 65 प्रत्याशियों में से आधे के टिकट काटने की मजबूरी होगी। ऐसे में टिकट न मिलने से नाराज यह प्रत्याशी कांग्रेस तथा प्रसपा के शिवपाल के पास जाएगे। यह विरोधी गठबंधन भी सपा-बसपा के ही वोट बैंक में सेंध लगाएगा।
विजय शंकर पंकज
लखनऊ, (यूरीड मीडिया)। उत्तर प्रदेश की राजनीति में 25 वर्ष बाद हुए समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को लेकर तहलका मचा हुआ है। यह गठबंधन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। रामलहर में भाजपा के बढे विजय रथ को रोकने में इस गठबंधन ने महति भूमिका निभायी थी परन्तु तब भी उसे संपूर्ण गैर भाजपायी दलों का समर्थन लेने को मजबूर होना पड़ा था। वर्ष 1993 मेंभी कांग्रेस तथा रालोद की स्थिति वर्तमान स्थिति से काफी मजबूत थी। सपा-बसपा गठबंधन के बाद भी भाजपा 1993 के चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी परन्तु कांग्रेस और रालोद के समर्थन से मुलायम सिंह यादव की सरकार बनी। सपा-बसपा गठबंधन के बाद इन दलों के कार्यकर्ताओं में अतिउत्साह है परन्तु देश के राजनैतिक परिदृश्य में स्थितियां इन दलों के नेताओं के लिए अनुकूल नही है। देश के राजनीति क्षितिज में सपा-बसपा नेताओं की विश्वसनीयता घटी है और बड़े दल के रूप में कांग्रेस किसी ऐसे नेता को अपना समर्थन देने से बचेगी जिसके कार्यव्यवहार उनके अनुकूल न हो। अन्य क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांछा भी एक दूजे को लेकर किसी के पक्ष में समर्थन देने की नही है।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक परिदृश्य क्षेत्रीय दलों के लिए उतना अनुकूल नही है, जो पिछली मिलीजुली सरकारओं के समय हुआ। केन्द्र में गैर भाजपा सरकार के लिए कोई भी गठबंधन बिना कांग्रेस के सफल नही हो सकता। कांग्रेस को छोड़कर किसी भी क्षेत्रीय दल की यह हैसियत नही है कि उनके 40 सांसद भी जीत सके। ऐेसे में क्षेत्रीय दल का कोई नेता यह सपना देखे कि कांग्रेस उसे समर्थन देकर प्रधानमंत्री बना देगी, वर्तमान राजनैतिक परिवेश में यह दिवास्वप्न जैसा है। कांग्रेस का चन्द्रशेखर, देेवेगौड़ा तथा इन्द्रजीत गुजराल को समर्थन देने की राजनीतिक परिस्थितियों और वर्ष 2019 के राजनीतिक हालात में काफी बदलाव आया है। सपा ने 2004 के लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक 35 सीटें जीती जो 2009 में घटकर 23 रह गयी। बसपा 2009 के चुनाव में सर्वाधिक 20 सीटे जीती। लोकसभा के इन दोनों चुनावों के समय राज्य में सपा एवं बसपा की सरकारें थी। वर्षो में प्रदेश की राजनीति में कमजोर होती कांग्रेस ने 2009 के चुनाव में 21 सीटें जीतकर अन्य दलों को अचम्भित कर दिया था।
सपा एवं बसपा नेतृत्व को अपने संगठन के हालात की असलियत को समझना पड़ेगा। वर्ष 2007 में बसपा तथा 2012 में सपा की उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकारें बनी। इन सरकारओं की कार्यशैली ने पार्टी के संगठनात्मक ढ़ाचे को काफी क्षति पहुंचायी। अखिलेश सरकार में पिछड़ो-मुस्लिमों की पार्टी कही जाने वाली सपा केवल यादव विरादरी की बनकर रह गयी। कुर्मी, मौर्या, कुशवाहा, सैनी तथा अन्य पिछड़ी जातियां सपा से दूर हो गयी है। यादववाद में भी मुलायम सिंह यादव का पारिवारिक कलह और अखिलेश की दबंगई ने परिवार में ही विभाजन करा दिया। हालात यह हुए कि अखिलेश ने अपने ही पिता मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर कब्जा जमा लिया तो यादव परिवार के नंबर दो परेशान चचा शिवपाल यादव सपा से हटकर नयी पार्टी बना चुके है। इसी प्रकार 2007 में मायावती की सरकार में चमार एवं जाटव को छोड़कर अन्य दलित वर्ग पार्टी से अलग हो चुका है। बसपा के साथ लंबे समय तक साथ देने वाले कुर्मी, गड़ेरिया, कुशवाहा, मौर्या, राजभर तथा नोनिया विरादरी के पिछड़े भी अलग हो गये है। बसपा की सियासत में ब्राह्मण नेता के रूप में उभरे सतीश चन्द्र मिश्र की दखलन्दाजी से जाटव विरादरी में काफी नाखुश है। इस प्रकार मायावती-अखिलेश के इस सियासी गठबंधन में 13 प्रतिशत चमार-जाटव तथा 8 प्रतिशत यादव का ही योगदान होना है। भाजपा विरोध के नाम पर जहां गठबंधन प्रत्याशी हावी होगा, वहां पर मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिल जाएगा। मुस्लिम मतों में कांग्रेस गठबंधन की भी भूमिका महति होगी। मुस्लिम मतदाताओं में अब यही यह संशय है कि बसपा कभी भी पाला बदलकर भाजपा का साथ देगी। यही नही स्थानीय स्तर पर भी यादव एवं बसपा के दलित समर्थको में आपसी कटुता नया रंग दिखा सकती है। यादवों से पीड़ित दलितों की पीड़ा देखने मायावती कभी भी नही जाती है।
सपा-बसपा गठबंधन के लिए कांग्रेसी गठबंधन सबसे ज्यादा खतरनाक होगा। सपा-बसपा गठबंधन में महत्व न मिलने से रालोद नेता अजित सिंह नाराज चल रहे है और वह कांग्रेस से वार्ता कर रहे है। सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस का रालोद के साथ ही सपा के विद्रोही शिवपाल गुट से समझौता अन्तिम चरणों में है। इसके साथ ही कांग्रेस नेतृत्व कुछ अन्य छोटे दलों के साथ भी समझौता करने में जुटा है। कांग्रेस का यह गठबंधन सपा-बसपा की नींव हिला सकता है। इन दोनों गठबंधनों के बीच भाजपा के वोट बैंक में कोई कमी नही दिखती है। वर्ष 2014 के चुनाव में भाजपा के साथ यादव छोड़ अन्य पिछड़ा वर्ग तथा चमार जाटव छोड़ अन्य दलित वर्ग साथ खड़ा नजर आ रहा है। इसके साथ ही अब भी सवर्ण वर्ग के लिए भाजपा के अलावा अन्य कोई विकल्प नही है। सपा-बसपा गठबंधन ने नाराज चल रहे सवर्णो को भी भाजपा से जोड़ने में अति महति भूमिका निभायी है।
सपा बसपा गठबंधन को प्रदेश की आधी लोकसभा सीटें हासिल करने के लिए भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। अति उत्साह उनकी रणनीति को विफल कर सकती है। गठबंधन के बाद बसपा के टिकट की दरें काफी बढ़ गयी है। चर्चा है कि जौनपुर की लोस सीट के लिए बसपा के पास 35 करोड़ का आफर है तो पश्चिम की कई सीटों की दरें 20 से 30 करोड़ की हो गयी है। इसके बावजूद सपा अपने विश्वसनीय नेताओं को स्थापित करने में जुटा हुआ है। इन राजनीतिक समीकरणों के बीच राजनीतिक धुरी के अन्तरविरोध को भी समझना होगा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा 34 तथा सपा 31 सीटों पर नंबर दो थे। बसपा का कोई प्रत्याशी नही जीता था। जबकि सपा के 5 प्रत्याशी जीते थे। इस प्रकार सपा-बसपा के नंबर दो 65 प्रत्याशियों में से आधे के टिकट काटने की मजबूरी होगी। ऐसे में टिकट न मिलने से नाराज यह प्रत्याशी कांग्रेस तथा प्रसपा के शिवपाल के पास जाएगे। यह विरोधी गठबंधन भी सपा-बसपा के ही वोट बैंक में सेंध लगाएगा।
15th January, 2019