विजय शंकर पंकज-यूरीड मीडिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दिल्ली में आयोजित तीन दिवसीय चिन्तन बैठक में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने साफ किया कि मुसलमानों के बिना हिन्दुस्तान या कहे भारत की कल्पना नही की जा सकती है। भागवत के इस कथन के कई मायने निकाले जा रहे है। कोई मुस्लिम परस्ती कहता है तो कोई संघ के अपने सिद्धान्तो से बैक आउट होने की बात कहता है। संघ की हिन्दुत्व की अवधारणा के संदर्भ में हमेशा ही राजनीतिक दलों तथा कुछ संगठनों में विभ्रम की स्थिति रही है।
विशेष कर संघ के बारे में वामपंथी दलों ने काफी कुछ कुप्रचार किया। वामपंथी दलों ने संघ के सामाजिक सकरात्मक कार्यो को नेपथ्य में डालकर उस पर हमेशा ही धार्मिक लबादा ही ओढ़ाने का प्रयास किया। वामपंथियों ने यह काम तब किया जब वे अपने को किसी भी धर्म से परहेज करने या न मानने की बात कहते है। इसके बावजूद वामपंथियों का मुस्लिम तुष्टिकरण आजादी की लड़ाई के समय से ही चलता आ रहा है। हालांकि संघ ने अपनी स्थापना काल से ही समाज के सभी वर्गो को साथ लेकर चलने की बात कही परन्तु हिन्दुत्व एजेन्डे को लेकर हमेशा ही दिग्भ्रम की स्थिति रही।
देश में भाजपा के बढ़ते राजनीतिक बर्चस्व के पीछे अन्य प्रतिद्वन्दी दलों ने संघ को परोक्ष रूप में जिम्मेदार माना। असल में राजनीतिक दल अपनी कमियांे पर समग्र विचार न कर समस्याओं का बोझ दूसरे दलों पर नकरात्मक रूप से थोपने का ही प्रयास करते रहे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के कारणांे की जांच के लिए बनी एन्टनी कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि कांग्रेस का अत्यन्त मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते बहुसंख्यक हिन्दू समाज दूर होता चला गया जिसका फायदा भाजपा को मिला। दस वर्ष तक सत्ता में रहते कांग्रेस को छोटी-छोटी और विशेषकर आतंकवादी घटनाओं में भी मुस्लिम समाज को संरक्षण देने और हिन्दुओं की उपेक्षा की जानकारी नही मिल पायी। एन्टनी कमेटी की रिपोर्ट के बाद कांग्रेस ने जो बदलाव किया, उसके परिणाम स्वरूप राहुल को जनेऊधारी पंडित से लेकर शिवभक्त बना दिया। कांग्रेस नेतृत्व का यह अतिरेक हिन्दुत्व भी भारतीय समाज में उपहास का पात्र बनकर रह गया है।
राजनेता अपने को सुपर मानते हुए आमजन को मूर्ख समझता है। नेताओं के इस व्यवहार से जनता पूरी तरह वाकिफ हो जाती है। विशेष कर जब झूठ बोलकर और गलत वायदे कर राजनीतिक दल सत्ता में आते है तो जनता को जल्द ही उनकी सच्चाई का एहसास हो जाता है। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शाइनिंग इंडिया का नारा भी अनुसूचित जातियों को प्रमोशन में आरक्षण देने के कारण फीका पड़ गया और भाजपा एक दशक तक सत्ता से बाहर हो गयी। बाद में कट्टर हिन्दूत्व और गैर भाजपाई दलों के मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते भाजपा सत्ता में लौट पायी। वर्ष 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा ने सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय का नारा दिया तो सवर्ण समाज विशेष कर ब्राह्मण उसके झांसे में आ गये परन्तु मायावती ने दलित वर्गा के लिए जब प्रमोशन में आरक्षण लागू किया तो सवर्ण समाज को उसकी असलियत का पता चल गया। अगले 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर सवर्ण समाज को अपने पाले में ले लिया परन्तु उनके युवा सम्राट अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री रहते यादववाद का जो तांडव खेला और नौकरियों में एकतरफा जातिवाद की लहर चलायी तो 2017 में मुंह की खानी पड़ी। पिछले दो दशकों में भारतीय राजनीति के बदलाव के कुछ ऐसे कारण है जिससे समाज की जागरूकता का आंकलन किया जा सकता है।
गैर भाजपाई राजनीतिक दल भाजपा के सत्ता में आने के लिए जिस संघ के प्रभाव को महत्व देते है, वह राजनीतिक परिस्थितियों और अपनी कमियों से मुंह छिपाने का प्रयास करते है। संघ तो 1952 से ही अपनी विचारधारा की सरकार के लिए प्रयास करती रही है परन्तु ऐसा कभी संभव नही हो पाया। चुनावी हथकंडे को जानने वाले जानते है कि राजनीतिक और चुनावी हथकंडा में संघ कार्यकर्ता अब भी काफी फिसड्डी है। संघ के प्रत्याशियों को भाजपा चुनाव मैदान में उतारती है अधिकांशत: हार का ही सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार संघ के एजेन्डे को लागू करने पर भी सरकार के लिए कई तरह की परेशानिया पैदा हो जाती है। वर्ष 1996-1998 तथा 1999 में भाजपा की बनी मिली जुली सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के दशकों के राजनीतिक संकल्प का परिणाम था। इसमें संघ का कोई योगदान नही था। इसके विपरीत संघ ने अटल सरकार के आर्थिक नीतियों के खिलाफ मुहिम चलाकर परेशानियां ही पैदा की। इसी प्रकार वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार में वापसी नरेन्द्र मोदी के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते कट्टर हिन्दूत्ववादी छवि का प्रभाव रहा। इस चुनाव अभियान में भी मोदी का आक्रामक और आधुनिक तकनीकी रणनीति ही कारगर रही। ऐसे में इस जीत को संघ का श्रेय देना मूल राजनीतिक मुद्दे से देश को भ्रमित करने का ही प्रयास है।
दिल्ली की चिन्तन बैठक में मोहन भागवत ने मुस्लिमों को जोड़ने का जो संकेत दिया है, उसके पीछे भारत के सभी वर्गो को जोड़ने की रणनीति का ही हिस्सा है। यह बात हमेशा से संघ कहता रहा है। हिन्दू समाज के अस्पृश्य जातियों को जोड़ने की दिशा में संघ पिछले चार दशकों से काम करता आ रहा है। संघ ने ही छोटी जातियों के साथ सहभोज की शुरूआत की। आदिवासी इलाकों में संघ का वनवासी आश्रम ने जो सेवा प्रकल्प चलाया है, असम तथा अन्य पूर्वी राज्यों में भाजपा की सरकार बनने में इनका बड़ा योगदान है। संघ का मानना है कि भारत भूमि के अन्दर जो भी है, वह सभी हिन्दू है। हिन्दू धर्म नही बल्कि जीवन पद्धति है। तमाम क्षेत्रों में हिन्दू, मुस्लिम तथा इसाई सभी का सामाजिक व्यवहार एवं खान-पान समान होता है भले ही पूजा पद्धति अलग होती है। संघ इसी सामाजिक विचार को व्यापक रूप देने की तरफदारी करता है। इस्लाम या अन्य धर्म पैदा होने से पहले भी मानव समाज था और वह किसी न किसी धार्मिक क्रियाकलाप से जुड़ा था। भारत में इस्लाम आने से पहले सभी हिन्दू समाज के ही हिस्से थे। ऐसे में धार्मिक पूजा पद्धति को छोड दे तो सभी के पूर्वज एक ही थे। भारतीय मुसलमान और सऊदी के मुसलमान का डीएनए एक नही हो सकता है जितना भारतीय हिन्दु एवं मुसलमान का होगा। संघ की व्यापकता को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। यही कारण है कि मोहन भागवत ने साफ कहा है कि संघ सभी को जोड़ने का काम करता है न कि समाज को विभाजित करने का। कई राजनीतिक दल समाज को जाति-धर्म एवं क्षेत्र में बांटकर वोट बैंक बनाने का प्रयास करते है जिससे समाज में दुर्भावना बढ़ती जा रही है। देश में क्षेत्रीय दलों का उत्थान और राजनीतिक दलों पर भारी होता जातिवाद समाज के लिए घातक साबित होता जा रहा है। सपा और बसपा राजनीतिक दलों का उत्थान इसी जातियता का परिणाम है। यही कारण है कि इन दलों के उत्थान के बाद से कांग्रेस एवं भाजपा का प्रभाव कम होने लगा। इन दलों के जातीय कांट के लिए भाजपा ने अतिपिछड़ा और अतिदलित का कार्ड खेला जो पिछले दो चुनावों में हावी रहे और भाजपा को भारी जीत मिली।
19th September, 2018