अखिलेश की जल्दबाजी भारी पड़ी सपा को
विजय शंकर पंकज
(यूरिड मीडिया), लखनऊ। आगामी लोकसभा चुनाव से पूर्व विपक्षी गठबंधन पहले ही दौर में दो फाड़ होता नजर आ रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव की हार के बाद सबसे प्रमुख विपक्षी दल के नेता के रूप में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने जितनी तेजी दिखायी दी, वह उन्ही के गले की फांस बन गया है। दिल्ली में उत्तर भारत के कई राज्यों में गठबंधन को लेकर हुई कांग्रेस कमेटी की बैठक में बहुजन समाज पार्टी से हाथ मिलाने की बात तो की गयी परन्तु ज्यादातर सदस्य सपा से दूरी बनाये रखने के ही पक्ष में थे। गठबंधन की अगुवाई कांग्रेस किसी अन्य दल या नेता को नही देना चाहती है।
ऊत्तर प्रदेश में गठबंधन की पहल सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने की। इस गठबंधन में अखिलेश की पहली पसन्द बसपा नेता मायावती को साथ लेकर चलने की थी। इसके लिए दोनों ही दलों ने पुरानी कड़वाहट को भूलाकर नये राजनीतिक समीकरण बनाना था। इस गठबंधन के तहत मायावती की भी राजनीतिक मजबूरी थी। लोकसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल न करने के बाद विधानसभा में भी बसपा अपने पुराने रिकार्ड पर आ गयी थी। अखिलेश की पहल को मायावती ने भी शान्त तरीके से हामी भर दी। सपा-बसपा गठबंधन का यह तानाबाना तैयार होता कि तमाम विपक्षी दल मोदी के खिलाफ एकजुटता की दुहाई देने लगे। अन्य राज्यों पश्चिम बंगाल , आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, तमिलनाडू, कर्नाटक सहित महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि राज्यों के क्षेत्रीय नेता गठबंधन को लेकर लामबंदी करने लगे। यह लड़ाई इतनी तेजी से आगे बढ़ी की अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के भी दावेदारी तेज हो गयी। कई वरिष्ठ क्षेत्रीय नेताओं शरद पवार, ममता, चन्द्रबाबू नायडू तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के दावेदारी में भी देखने को तैयार नही थे और उन्हें अनुभवहीन कहने से भी नही कतराते। हालांकि यह नेता स्वीकार करते थे कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बिना अन्य कोई विपक्षी गठबंधन नही हो सकता। विपक्षी नेताओ की इस धमाचौकड़ी में वामपंथी दलों ने फिलहाल अपना रूख स्पष्ट नही किया परन्तु वह भी मोदी विरोधी लावी में अपनी भूमिका को लेकर पूरे घटनाक्रम पर नजर रखे हुए थे।
विपक्षी नेताओं की इस व्याकुलता के बीच कांग्रेस नेतृत्व ने ज्यादा परिपक्वता दिखायी। कांग्रेस को भी इस बात का एहसास था कि उसके बिना भाजपा विरोधी कोई गठबंधन होना संभव नही है। विपक्षी गठबंधन के लिए कांग्रेस को जितना दूसरे दलांे की जरूरत है, उतनी अन्य दलों को भी है। यही वजह रही कि कांग्रेस ने कुछ वरिष्ठ विपक्षी नेताओ की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर कोई प्रतिक्रिया नही दी। इसके विपरीत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ संकेत दे दिया कि अगले चुनाव में कांग्रेस तथा उसके गठबंधन को बहुमत मिला तो वह प्रधानमंत्री पद स्वीकार कर सकते है।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव गठबंधन के लिए बसपा को तो कुछ सीटें देने को राजी थे परन्तु कांग्रेस को 10 सीटें भी नही देना चाहते। कैराना के उपचुनाव के बाद सपा ने अजित सिंह को कांग्रेस के साथ मिलाने की पहल की। जल्दबाजी में बसपा से गठबंधन के लिए अखिलेश ने अपनी कमजोरियां जाहिर कर दी और कई मौकों पर सरेन्डर के भाव पैदा कर दिया। अखिलेश की यह राजनीतिक अपरिपक्वता उनके लिए घातक साबित हुई। राजनीति की चतुर खिलाड़ी मायावती ने अखिलेश को किनारे कर कांग्रेस की तरफ दांव फेकना शु डिग्री कर दिया। सपा से गठबंधन की खबरों के बीच बसपा ने उत्तर प्रदेश में अपने काडर से सर्वे कराया तो परिणाम नकरात्मक निकले। बसपा के सर्वे में बताया गया कि प्रदेश का दलित समुदाय किसी भी हालात में सपा के साथ जाने को तैयार नही है। इससे बसपा का अपना कैडर भी छिटकने की आशंका पैदा हो गयी है। इसके पीछे तर्क दिया गया कि सपा ने ही "" प्रमोशन में आरक्षण "" को समाप्त किया था जिसका परिणाम है कि लाखों दलित कर्मचारियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। यही नही अखिलेश के पांच साल के शासन में यादवों ने सर्वाधिक दलितों को प्रताड़ित किया और उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया। इस रिपोर्ट के बाद ही मायावती ने कांग्रेस की तरफ गठबंधन की पहल की। कांग्रेस के लिए बसपा से गठबंधन अन्य राज्यों में भी फायदेमंद था। दिल्ली में कांग्रेस नेतृत्व की बैठक में राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में बसपा के साथ से कांग्रेस को ज्यादा फायदा होगा। कर्नाटक चुनाव में देवगौड़ा की पार्टी को इसका फायदा मिल चुका है। गुजरात में भी कांग्रेस को इसका एहसास हो गया था। लोकसभा चुनाव में यूपी में बसपा, कांग्रेस और रालोद का गठबंधन मुख्य भूमिका में होगा। इसमें बसपा 55 से 60 सीटों तथा कांग्रेस-रालोद 20 से 25 सीटों पर चुनाव लड़ेगे।
सपा नेताओ को भी प्रदेश में अन्य दलों के गठबंधन से अलग होने का एहसास हो गया है। यही वजह है कि सपा नेता कहने लगे है कि यूपी में गठबंधन करने से उन्हें अगले विधानसभा चुनाव में भारी घाटा उठाना पड़ेगा। सपा नेतृत्व का कहना है कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन होने पर पार्टी को 30 से 35 सीटों पर सिमटना पड़ेगा जिसके चलते अगले विधानसभा चुनाव में 200 से 225 सीटों का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। ऐसे में जरूरी है कि लोकसभा चुनाव से ही सपा विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू करे। इसी के तहत अखिलेश ने राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में भी सपा प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाने की तैयारी शुरू कर दी है।
15th July, 2018